पंचकर्म चिकित्सा के प्रकार और लाभ
2022-05-25 18:10:34
पंचकर्म चिकित्सा के प्रकार – रोगी के रोग का इलाज करना और स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य को बनाए रखना ही आयुर्वेद का सिद्धांत है। पंचकर्म चिकित्सा को आयुर्वेद के इन दोनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सर्वोत्तम माना गया है। इसलिए शारीरिक रोग ही नहीं बल्कि मानसिक रोगों की चिकित्सा के लिए भी पंचकर्म को सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा माना जाता है।
पंचकर्म आयुर्वेद का एक प्रमुख शुद्धिकरण एवं मद्यहरण उपचार है। जिसका आशय है- विभिन्न चिकित्साओं का संमिश्रण है। इस प्रक्रिया का प्रयोग शरीर को बीमारियों एवं कुपोषण द्वारा छोड़े गये हानिकारक पदार्थों से शुद्धिकरण करने के लिए होता है। आयुर्वेद के अनुसार असंतुलित दोष विषैला पदार्थ उत्पन्न करता है। जिसे ‘अम’ कहा जाता है। यह दुर्गंधयुक्त, चिपचिपा, हानिकारक पदार्थ होता है। जिसे शरीर से निकालना बेहद जरूरी होता है। अम के निर्माण को रोकने के लिए आयुर्वेदिक व्यक्ति को उचित आहार लेने, उपयुक्त जीवन शैली, आदतें, व्यायाम के साथ पंचकर्म जैसे उचित निर्मलीकरण को उपयोग में लाने की सलाह देता है।
क्या है पंचकर्म थेरेपी? (पंचकर्म चिकित्सा के प्रकार)
पंचकर्म चिकित्सा (Panchakarma Therapy) शरीर का शुद्धिकरण (डिटॉक्सीफाई) करता है। यह प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करने का सबसे अच्छा माध्यम है। विशेषज्ञों के अनुसार, पंचकर्म के द्वारा शरीर के साथ मन का भी उपचार किया जाता है।
हर इंसान को वर्ष में एक या दो बार पंचकर्म थेरेपी जरूर करानी चाहिए। पंचकर्म करवाने से शरीर में मौजूद विषाक्त पदार्थ बाहर निकल जाते हैं। जिससे बीमार होने की संभावनाएं बहुत कम हो जाती है और यदि कोई व्यक्ति पहले से बीमार है तो वह जल्दी ठीक होता है। पंचकर्म हमारे दोषों में संतुलन लाता है। साथ ही शरीर के विषैले पदार्थों (अम) को आमाशय, स्वेद ग्रंथियों (Sweat glands), मूत्र मार्ग, आंत आदि मार्गों के माध्यम से बाहर करता है।
यह एक संतुलित कार्य प्रणाली है। इसमें प्रतिदिन की मालिश शामिल है। जोकि अत्यंत सुखद अनुभव है। हमारे मन और शरीर व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिए आयुर्वेद पंचकर्म को एक मौसमी उपचार के रूप में करने की सलाह देता है।
पंचकर्म क्रिया से पहलें क्या करें? (पंचकर्म चिकित्सा के प्रकार)
इसमें पांच प्रधान कर्म होते हैं। लेकिन इसको शुरू करने से पहले भी दो काम जरूर कर लेने चाहिएं। पहला स्नेहन और दूसरा स्वेदन। जो शरीर से व्याप्त दोषों को निकालने में सहायता करता है।
पंचकर्म चिकित्सा के प्रकार
स्नेहन (oilation)-
इस प्रक्रिया में पुरे शरीर में तेल लगाया जाता है। स्नेहन (चिकनाई) थेरेपी के अंतर्गत मुख्य रूप से चार स्नेहनों का प्रयोग किया जाता है। जोकि निम्न हैं-
- घृत
- मज्जा
- वसा
- तेल
यह चारों स्नेह मुख्य रूप से पित्त को नियंत्रण करने में मदद करते हैं। इसके लिए गाय के घी को उत्तम माना गया है। पर औषधि से निकले विभिन्न तेलों का प्रयोग पंचकर्म के लिए किया जाता है। जिनका आधार मुख्य रूप से तिल का तेल होता है। स्नेहन करने से शरीर से विषाक्त पदार्थो को बाहर निकालने में सहायक मिलती हैं।
स्वेदन (farmention)-
इस प्रक्रिया में शरीर से स्वेद (पसीना) निकालता है। इस प्रक्रिया में विषाक्त पदार्थ पानी के तरह हो जाते हैं। स्नेहन क्रिया कठोर विषाक्त पदार्थ को मुलायम बनानें में मदद करता है। जबकि स्वेदन इसे पसीने के माध्यम से बाहर निकालने में सहायता करता है।
स्वेदन करने के तरीके;
- एकांग स्वेद: विशेष अंग का स्वेदन
- सर्वांग स्वेद: पूरे शरीर का स्वेदन
- अग्नि स्वेद: सीधे आग के संपर्क से स्वेदन
- निरग्नि स्वेद: आग के सीधे संपर्क के बिना स्वेदन
प्रधान कर्म-
इस पद्धति में अनेक प्रक्रियाओं का इस्तेमाल किया जाता है। जोकि इस प्रकार हैं:
वमन क्रिया (पहला चरण)-
जब शरीर के दूषित पदार्थ स्नेहन और स्वेदन के माध्यम से आमाशय में इकट्ठा हो जाते हैं। उन्हें बाहर निकालने के लिए वमन का सहारा लिया जाता है। वमन यानी उल्टी करके मुंह से दोषों को निकालना। फेफड़े में संकुलता होने पर इस उपचार का प्रयोग किया जाता है। जिसके कारण कई बार खांसी, ठंड लगना, श्वासनली-शोथ और दमा के दौरे आते हैं।
इस चिकित्सा का उद्देश्य अधिक कफ से छुटकारा पाने हेतु उल्टी के लिए प्रवृत कराना है। इसके लिए मुलेठी और मधु या पिच्छाक्ष के जड़ की चाय मरीज को दी जाती है। उसके बाद अन्य उपयुक्त पदार्थ जैसे नमक, इलायची को जीभ पर रगड़कर उल्टी के लिए प्रेरित किया जाता है। उल्टी करके मरीज बहुत ही आराम महसूस करता है। यदि इस क्रिया का उचित तरीके से प्रयोग किया जाए तो फेफड़ों से संबंधित बीमारियों से निजात मिलती है। जिससे मरीज स्वतंत्र रूप से सांस ले पाता है।
वमन विधि का प्रयोग कौन न करें?
- गर्भवती स्त्री।
- कोमल प्रकृति वाले लोग।
- शारीरिक रूप से कमजोर व्यक्ति इत्यादि।
विरेचन (दूसरा चरण)-
विरेचन को पित्त दोष की प्रधान चिकित्सा कहा जाता है। जब पित्ताशय, यकृत(लीवर) और छोटी आंतों में अधिक पित्त स्त्रावित (जमा) होते हैं। जिससे शरीर फुंसी, त्वचा की जलन, मितली, पीलिया, उल्टी, ज्वर (बुखार) आदि से ग्रसित होने लगता है। ऐसे में विरेचन एक औषधीय परिष्करण चिकित्सा है। जो शरीर से पित्त विषजीव (ख़राब पित्त) को हटाता है। साथ ही जठरांत्र (गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल) को पूर्ण रूप से शुद्ध करता है। विरेचन स्वेद ग्रंथिया, छोटी आंत, पेट, मलाशय, लीवर आदि का शोधन करता है। विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटी विरेचक औषधि के रूप में प्रयुक्त होती है। इनमें आलूबुखारा, चोकर, अलसी की भूसी, दुग्धतिक्ता की जड़, नमक, अरंडी का तेल, किशमिश आम रस शामिल हैं। इन विरेचक औषधियों का प्रयोग करने पर सीमित आहार का पालन करना महत्वपूर्ण है। इस विधि का प्रयोग सिरदर्द, बवासीर, भगंदर, गुल्म, रक्त पित्त आदि रोगों में लाभप्रद होता है।
इस विधि का प्रयोग कौन न करें?
- जो रातभर जागा हो।
- जो बुखार से पीड़ित हो।
- टीबी और एड्स से पीड़ित व्यक्ति को विरेचन नहीं कराना चाहिए।
नस्य प्रक्रिया (तीसरा चरण)-
नाक से औषधि को शरीर में प्रवेश कराने की क्रिया को नस्य कहा जाता है। नस्य प्रक्रिया को गले और सिर के रोगों के लिए उत्तम चिकित्सा कहा गया है। इस प्रक्रिया में रोगी को नाक के रास्ते से औषधि दी जाती है। जो रोगी के सिर से विषाक्त पदार्थो को बाहर निकालने में सहायता करती है। इसके अलावा इस प्रक्रिया में मरीज के सिर और कंधो पर मालिश भी की जाती है। उसके बाद नाक में एक ड्राप डाला जाता है। जो रोगी के शरीर से अपशिष्ट पदार्थ को निकालने में सहायता करता है। सिर से अपशिष्ट पदार्थ निकल जाने से माइग्रेन, सिर दर्द और बालों की समस्या में राहत मिलती है। नस्य प्रक्रिया नाक और सिर से कफ निकालने हेतु बहुत अच्छा विकल्प है।
नस्य प्रक्रिया का प्रयोग कौन न करें?
- अत्यंत कमजोर व्यक्ति।
- सुकुमार रोगी।
- मनोविकार वाले रोगी।
- अति निद्रा से ग्रस्त लोग आदि।
वस्ति (चौथा चरण)-
वस्ति को वात रोगों की प्रधान चिकित्सा कहा गया है। इस प्रक्रिया में गुदामार्ग या मूत्रमार्ग के द्वारा औषधि को शरीर में प्रवेश कराया जाता है। जिससे बीमारी का इलाज हो सके। यह दो तरह का होता है। पहला आस्थापन और दूसरा अनुवासन। चरक संहिता में इन दोनों को दो अलग-अलग कर्म माना गया है।
आस्थापन या निरुह वस्ति-
इसमें विभिन्न औषधि द्रव्यों के क्वाथ (काढ़े) का प्रयोग किया जाता है। यह वस्ति क्रिया पहले शरीर के दोषों को शोधन करती है। फिर उन्हें शरीर से बाहर निकालती है।
अनुवासन वस्ति-
इस प्रक्रिया में शरीर से विषाक्त पदार्थ को निकालने के लिए तेल, दूध, घी, जैसे तरल पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है। इन पदार्थों को मलाशय में पहुंचाया जाता है। पहली वस्ति से मूत्राशय और प्रजनन अंगों को बेहतर किया जाता है। और दूसरी वस्ति से मस्तिष्क विकारों और चर्म रोगों में शांति मिलती है। इसके बाद दी जाने वाली हर वस्ति से शरीर में बल की वृद्धि होती है। साथ ही रक्त धातुएं भी शुद्ध हो जाती हैं।
रक्तमोक्षण (पांचवा चरण)-
शल्य चिकित्सा शास्त्रों के अनुसार पांचवां कर्म ‘रक्त मोक्षण’ को माना गया है। रक्त मोक्षण का मतलब है “शरीर से दूषित रक्त को बाहर निकालना”। ताकि खराब रक्त से होने वाले रोगों से मुक्ति पाई जा सके। इसमें शिराओं (नसों) को काटकर, शरीर पर कनखजूरा और लीच (जोंक) चिपका कर अशुद्ध रक्त को शरीर से बाहर निकालने का प्रयास किया जाता है। धमनियों और वेन्स (Vance) में खून का जमना और पित्त की समस्या से होने वाले बीमारियां में भी लीच थेरपी से जल्दी फायदा होता है।
पंचकर्म के फायदे;
पंचकर्म के निम्नलिखित फायदे हैं-
- यह पाचन क्रिया को मजबूत बनाता है।
- पंचकर्म लोगों के ऊतकों (Tissues) को युवा बनाता है।
- वजन कम करने में भी यह मदद करता है।
- यह शरीर और दिमाग से विषैले पदार्थो को बाहर निकालता है।
- इससे शरीर पुष्ट और बलवान बनता है।
- पंचकर्म रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करता है।
- इससे शरीर की क्रियाओं का संतुलन पुन: लोटने लगता है।
- पंचकर्म से रक्त शुद्ध होता है और त्वचा में चमक आती है।
- पंचकर्म से मन और इंद्रियों को शांति मिलती है।
- लोगों की बढ़ती उम्र को यह रोकता है।
पंचकर्म के दौरान बरतें निम्नलिखित सावधानियां;
- देर रात तक न जागें।
- मुश्किल या देर से पचने वाला भोजन न करें।
- अधिक तापमान से बचें।
- अधिक तनाव से बचें और व्यायाम न करें।
- पंचकर्म समयावधि में यौन संबंध न बनाए।
- पंचकर्म के समय केवल गर्म पानी पिएं। नहानें और अन्य कार्यों में भी गर्म पानी का इस्तमाल करें।
कौन न करें पंचकर्म इलाज का उपयोग?
- गर्भवती और स्तनपान करने वाली महिलाएं।
- फेफड़ों के कैंसर से पीड़ित व्यक्ति।
- मासिक धर्म के दौरान भी महिलाओं को पंचकर्म क्रिया का उपयोग नहीं करना चाहिए।
- बहुत अधिक मोटापा से ग्रसित पुरुष या स्त्री।
- किसी भी संक्रमित रोग से ग्रसित व्यक्ति।