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सीओपीडी क्या है? जानें, इसके कारण, लक्षण और घरेलू उपाय

Posted 24 May, 2022

सीओपीडी क्या है? जानें, इसके कारण, लक्षण और घरेलू उपाय

क्रानिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) फेफड़ा संबंधित बीमारी है। यह सांसो को अवरूद्ध या उनमें रुकावट पैदा करती  है। जिससे व्यक्ति को सांस लेने में तकलीफ होती है। इसकी शुरुआती स्थिति को आसानी से ठीक किया जा सकता है। लेकिन इसको नजरअंदाज कर देना जानलेवा भी हो सकता  है। सांस न ले पाने (सीओपीडी) की समस्या कई कारणों से होती है जैसे धूम्रपान करना, प्रदूषित वातावरण में रहना आदि।

 

सीओपीडी क्या है?

आमतौर पर फेफड़े बहुत स्पॉन्जी होते हैं। जब हम सांस के जरिए हवा अंदर खींचते हैं, तो ऑक्सीजन का प्रवाह खून में होता  है और कार्बन डाइऑक्साइड बाहर निकल जाती है। लेकिन सीओपीडी बीमारी इस प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करती  है। सीओपीडी से पीड़ित व्यक्ति को सांस लेने में परेशानी होती है और ऑक्सीजन उसके शरीर में पूरी मात्रा में नहीं पहुंच पाती है। वातस्फीति (Emphysema) और क्रोनिक ब्रोंकाइटिस (chronic bronchitis) क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज में बनने वाले  दो प्रमुख कारक हैं। क्रोनिक ब्रोन्काइटिस ऐसी परिस्थितियां होती है, जिसमें व्यक्ति के श्वासनलियां (bronchial tubes) में सूजन होती है। यह श्वासनलियां फेफड़ों तक वायु ले जाने का काम करती हैं। इसके अलावा वातस्फीति (Emphysema) ऐसी परिस्थितियां है, जिसमें  फेफड़ों की थैली (ब्रोन्कोइल) धीरे-धीरे नष्ट होने लगती है।

 

क्या होते हैं सीओपीडी के लक्षण?

सीओपीडी के सामान्य लक्षण निम्नलिखित हैं-

  • तेजी से सांस लेना।
  • लगातार कई महीनों तक बलगम से परेशान रहना।
  • बलगम के साथ लगातार खांसी का होना।
  • छाती में संक्रमण होना।
  • लगातार गले में खराश होना।
  • सीने में जकड़न होना।
  • कई दिनों तक सर्दी-जुकाम, फ्लू या अन्य श्वास संबंधी संक्रमण का होना।
  • शारीरिक कमजोरी होना।

 

सीओपीडी के अन्य लक्षण-
  • तेजी से वजन घटना।
  • अधिक थकान महसूस करना।
  • छाती में असहनीय दर्द होना।
  • घुटनों में सूजन एवं दर्द होना।
  • खांसते वक्त बलगम में खून आना।

 

सीओपीडी के कारण-
  • तंबाकू और धूम्रपान का अधिक सेवन करना।
  • अस्थमा, टीबी रोग होने पर भी बीड़ी सिगरेट आदि का सेवन करना।
  • प्रदूषित वातावरण अर्थात फैक्टरियों और चूल्हों से निकलने वाला  धुआं।
  • किसी भी तरह के ईंधन के जलने से निकलने वाले धुएं के संपर्क में आना।
  • धूल एवं रसायन के संपर्क में आना।
  • कीटनाशक दवाइयां एवं पेंट में प्रयोग की जाने वाली रसायन से निकलने वाली हानिकारक गंध।
  • आनुवंशिकी यानी परिवार के किसी सदस्य को पहले से कभी फेफड़ों से संबंधित समस्याएं होना। 

 

सीओपीडी की रोकथाम-
  • वायु प्रदूषण से बचें।
  • स्वस्थ्य जीवन शैली अपनाएं।
  • वजन को नियंत्रित रखें।
  • धूम्रपान न करें और सेकंड-हैंड ( दुसरे द्वारा पी जाने वाली सिगरेट इत्यादि के धुएं) से बचें।
  • कार्यस्थल में होने वाले  रासायनिक धुएं और धूल के संपर्क में आने से बचें।
  • नियमित रूप से प्राणायाम और योग करें।
  • सीओपीडी से ग्रसित व्यक्तियों को नियमित रूप से दवाएं लें।

 

सीओपीडी का परिक्षण-

सीओपीडी के लक्षणों को  जानने के बाद डॉक्टर कुछ शारीरिक परिक्षण कराने का अनुरोध करते हैं, जो निम्नलिखित हैं ;

 

स्पिरोमेट्री (Spirometry)

स्पिरोमेट्री नामक परीक्षण से मरीज के  फेफड़ों की जांच  कराई जाती है। इसके माध्यम से यह पता लगाया जाता है कि व्यक्ति के फेफड़े कितनी अच्छी तरह काम कर रहें हैं। इस टेस्ट के द्वारा स्प्रिरोमीटर नामक मशीन से सांस लेने के लिए कहा जाता है। जिससे प्राप्त रीडिंग की तुलना मरीज की उम्र के आधार पर की जाती है। जो शरीर के वायुमार्गों में बाधा को प्रदर्शित करता है।

 

छाती का एक्स-रे कराना

सीओपीडी के परीक्षण के लिए डॉक्टर छाती का एक्स-रे करवाने का देते हैं  ह। इसके माध्यम से फेफड़ों में होने वाली समस्याओं को देखा जाता है, जो सीओपीडी नामक बीमारी में छाती के संक्रमण जैसे लक्षण को प्रदर्शित करता है।

 

ब्लड टेस्ट

ब्लड टेस्ट के जरिए स्वास्थ्य की कई स्थितियों का पता चलता हैं। इसमें सीओपीडी के सामान्य लक्षण जैसे ब्लड में आयरन की कमी (एनीमिया) की जांच की जाती है।

 

सीओपीडी के घरेलू उपचार-
  • सीओपीडी के मरीजों को गुनगुने पानी का सेवन करना चाहिए। इससे कफ ढीला और कम होता है। जिससे फेफड़ों को आराम मिलता है।
  • गुनगुने पानी में शहद मिलाकर पीने से सूजन कम होती है। दरअसल शहद एंटीबायोटिक की तरह काम करता है। जिससे शरीर में संक्रमण फैलने की आशंका कम हो जाती है। 
  • दालचीनी को शहद या गुड़ के साथ दिन में तीन बार लेने से इससे आराम मिलती है।
  • हल्दी में एंटीबैक्टीरियल और एंटी ऑक्सीडेंट गुण पाए जाते हैं। जो खांसी, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस और सर्दी-जुकाम से राहत दिलाने का काम करते हैं। ऐसे में सीओपीडी संबंधी समस्या होने पर एक गिलास दूध में आधा चम्मच हल्दी मिलाकर पिएं।
  • तुलसी में एंटीऑक्सीडेंट गुण पाए जाते हैं। जो सीओपीडी के मरीजों को राहत पहुंचाने का काम करती हैं। साथ ही तुलसी रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटी) को भी बढ़ाती है। इसके लिए अदरक, शहद और तुलसी का रस मिलाकर पीने से कफ का बनना रुक जाता है।
  • लहसुन में एंटी-बैक्टीरियल गुण मौजूद होते हैं। जो सीओपीडी के इलाज में मदद करते हैं। इसके अलावा लहसुन में प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय और संक्रमण से बचाने वाले एंटीमाइक्रोबियल गुण भी पाए जाते हैं। इसके लिए प्रतिदिन सोने से पहले लहसुन की 3 से 4 कलियों को दूध में अच्छी तरह से उबालें। अब इस मिश्रण को ठंडा करके पीएं। ऐसा करने से संक्रमण में फायदा होता है।
  • पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में प्याज का उपयोग अस्थमा, ब्रोंकाइटिस के लिए भी किया जाता रहा है। क्योंकि प्याज में एंटी-इन्फ्लामेट्री, एंटी-एलर्जिक, एंटी-कार्सिनोजेनिक और एंटीऑक्सीडेंट गुण होते हैं। यह सभी गुण संक्रमण को नष्ट करते हैं। इसके लिए प्याज को भूनकर शहद के साथ या प्याज के रस में एक चम्मच शहद मिलाकर सेवन करना चाहिए।
  • धनिया के बीज संक्रमण से लड़ने के लिए शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ाते हैं। इसके लिए धनिया चाय बनाकर रोगी को दिन में दो बार पिलाएं।

 

कुछ योग और प्राणायाम को अपनी दिनचर्या में शामिल करें

 योग और प्राणायाम सीओपीडी के मरीजों के लिए संजीवनी बूटी की तरह काम करते हैं। यदि व्यक्ति अपनी दिनचर्या में इसे नियमित रूप से शामिल करता है, तो सीओपीडी की आशंका खत्म हो जाती है। इसके अलावा सीओपीडी के शुरुआती चरण में प्राणायाम करने से इसकी गंभीरता बढ़ने का खतरा कम होती है। इसके लिए कुछ प्रकार के प्राणायाम निम्नलिखित हैं, जो सीओपीडी से बचाने या इसके लक्षणों को कम करने में मदद करते है। आइए जानते हैं इन्हीं प्राणायाम के बारे में ;

  • अनुलोम-विलोम।
  • कपालभाति।
  • ओह्म उच्चारण के साथ सूर्य नमस्कार।
  • सर्वांगासन।
  • भुजंगासन।
  • सिंहासन।

लेकिन ध्यान रहे उपरोक्त प्राणायाम करने से पहले किसी विशेषज्ञ से परामर्श जरूर लें।

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हाइपरसोम्निया (अधिक नींद) के कारण, लक्षण और घरेलू उपचार

Posted 24 May, 2022

हाइपरसोम्निया (अधिक नींद) के कारण, लक्षण और घरेलू उपचार

अधिक नींद आना स्लीपिंग डिसऑर्डर से संबंधित समस्या है। जिसे अंग्रजी में हाइपरसोम्निया ( Hypersomnia) कहा जाता है। इससे ग्रसित इंसान को रात में बहुत नींद आती है और सुबह उठने में भी परेशानी होती है। अत: हाइपरसोम्निया से ग्रसित व्यक्ति  को सारा दिन नींद आती रहती है।  और वह हमेशा थका-थका महसूस करता है। हाइपरसोम्निया के असर गंभीर हो सकते हैं। यह आमतौर पर हर समय नींद, सुस्ती और मानसिक व शारीरिक रूप से बीमार होने की सामान्य अनुभूति को बढ़ाता है। मनोस्थिति में होने वाले बदलाव (मूड स्विंग्स), चिड़चिड़ापन और चिंता इसके सामान्य लक्षण हैं। अधिक नींद आना यानी हाइपरसोम्निया रोग किसी भी उम्र के व्यक्ति को प्रभावित कर सकता है। विशेषज्ञों के मुताबिक,अमूमन  40% लोग इस  बीमारी से परेशान है। स्लीप डिसऑर्डर शिक्षा और काम के प्रदर्शन को कमजोर कर देता है।  साथ ही, यह मोटापे, चिंता, अवसाद, चिड़चिड़ापन, एकाग्रता की समस्याओं, याददाश्त से जुड़ी समस्याओं, प्रतिरक्षा प्रणाली की कार्यक्षमता को कमजोर और प्रतिक्रिया समय (Reaction Time) को कम करने का कारण बनता है।

 

हाइपरसोम्निया के प्रकार-
प्राइमरी हाइपरसोम्निया

इस प्रकार का स्लीप डिसऑर्डर सोने और जागने की क्रिया को नियंत्रित करने वाले नर्वस सिस्टम में खराबी के कारण होता है।

 

सेकेंडरी हाइपरसोम्निया

 इस तरह का स्लीप डिसॉर्डर में व्यक्ति को गहरी नींद नहीं आती और थकान महसूस होती है। इससे ग्रसित इंसान को रात को सोते समय सांस लेने में परेशानी होती है, जिससे कई बार नींद खुल जाती है। इसका मुख्य कारण कई दवाओं, कैफीन और एल्कोहल का अधिक मात्रा में सेवन करना होता है।

 

हाइपरसोम्निया के सामान्य लक्षण-
अत्यधिक नींद आना

आमतौर पर एक स्वस्थ्य व्यक्ति को 6 से 7 घंटों तक सोने की सलाह दी जाती है। लेकिन इस समस्या से ग्रसित व्यक्ति 12 से 14 घंटे तक सोने के बाद भी उसकी नींद पूरी नहीं होती और यह दिन में भी झपकियां लेने लगता है। विशेषज्ञों के मुताबिक, हाइपरसोम्निया के मरीजों को 24 घंटों में से 16 घंटे सोकर बिताना कोई असामान्य बात नहीं है।

 

नींद मादकता

हाइपरसोम्निया में पूरी नींद लेने के बाद भी एक खराब शारीरिक स्थिति जैसे भ्रम, भ्रान्ति और समन्वय में कमी होना आदि शामिल हैं। इसके अलावा जागने के बाद फिर वापस सो जाना सरल लगता है।

 

दिन के समय अधिक नींद आना

इससे पीड़ित व्यक्ति को अलार्म, प्रकाश एवं अन्य किसी के द्वारा उठाने की कोशिश करने के बाद भी जागने में कठिनाई महसूस होती है।

 

हाइपरसोम्निया के अन्य लक्षण-
  • ऊर्जा में कमी होना।
  • स्वभाव में चिड़चिड़ापन होना।
  • भूख न लगना।
  • पूरे दिन सुस्ती महसूस करना।
  • शरीर में थकान मह्सूस करना।
  • हर समय चिंता, तनाव एवं अवसाद में रहना।
  • याददाश्त कमजोर होना।
  • सोचने और बोलने की क्षमता का कमजोर हो जाना।
हाइपरसोम्निया के कारण-
  • स्लीप डिसऑर्डर नैक्रोप्लास्टी (दिन में नींद आना) एवं स्लीप एप्निया (रात को सोते समय सांस का रूकना) से ग्रसित होने पर।
  • लगातार कई दिनों तक जागने पर।
  • शिफ्ट जॉब में काम करने पर। 
  • सिर में चोट लगने या किसी तरह का न्यूरोलॉजिकल समस्या होने पर।
  • कैफीन युक्त पदार्थों का अधिक सेवन करने पर।
  • नशीली दवाओं एवं अलकोहल का अधिक सेवन करने पर।
  • मोटापा एवं शारीरिक सक्रियता की कमी होने पर।
अधिक नींद आने की बीमारी से कैसे बचे-
  • प्रतिदिन निश्चित समय पर सोएं।
  • रोजाना 6 से 7 घंटे की भरपूर नींद लें।
  • नियमित रूप से टहलें और सुबह व्यायाम करें।
  • प्रतिदिन योग और ध्यान का अभ्यास करें।
  • अलकोहल और कैफीन युक्त पदार्थों के सेवन से बचें।
  • मसालेदार एवं तैलीय युक्त भोजन से परहेज करें।
  • पौष्टिक युक्त आहार का सेवन करें।
  • पर्याप्त मात्रा में पानी पिएं।
  • गैजेट्स का इस्तेमाल कम करें।
हाइपरसोम्निया के घरेलू उपचार-
नींद कम करने के लिए फायदेमंद है सौंफ

सौंफ में मौजूद पौष्टिक तत्व अधिक नींद आने की समस्या से राहत दिलाते है। इसके लिए एक कप पानी में 10 ग्राम की मात्रा में सौंफ को अच्छी तरह से उबालें। उसके बाद इस मिश्रण को छानकर ठंडा कर लें। अब इस पानी में सेंधा नमक डालकर सुबह शाम इस्तेमाल करें। ऐसा करने से अधिक नींद आने की समस्या में आराम मिलती है।

 

नींद कम करने के लिए सहायक है काजल

ऐसा माना जाता है कि आंखों में काजल लगाने से नींद कम आती है। इसके अलावा काजल का प्रयोग करने से आंखो में पड़े धूलकण आदि पदार्थ बाहर निकल जाते हैं। जिससे आंख साफ-सुथरी हो जाती है और अच्छी नींद आने में मदद मिलती है। 

 

हल्के भोजन और विटामिन सी युक्त फलों का करें सेवन

अधिक वसा युक्त भोजन करना  ज्यादा नींद आने का कारण बनता है। इसलिए हमें सोते समय हल्का भोजन और अपनी डाइट में विटामिन सी युक्त पदार्थों जैसे नींबू, संतरा और मौसंबी को शामिल करें। ऐसा करने से भोजन जल्दी पचता है और नींद कम आती है।

 

नींद कम करने के घरेलू नुस्खा है लौंग

लौंग में पाए जाने वाले तत्व अधिक नींद आने की समस्या में लाभकारी होते हैं। । इसके लिए एक पान के पत्ते में लौंग को रखकर चबाएं। ऐसा करने इस समस्या से  नींद कम आती है।

 

गहरी सांस लें

अधिक नींद से बचने के लिए नाक से गहरी और लंबी सांस लेना भी कारगर उपाय है। ऎसा करते समय पेट को अंदर की तरफ खींचे। इससे श्वसन क्रिया अच्छी होती है और नींद को कम करने में मदद मिलती है।

 

कब जाएं डॉक्टर के पास?

नीचे दिए गए निम्न लक्षण दिखाई देने पर तुरंत डॉक्टर से परामर्श लें-

  • हीन एकाग्रता होने पर।
  • ध्यान केंद्रित करने की क्षमता कम होने पर।
  • याददाश्त कमजोर होने पर।
  • कुसमायोजित (uncoordinated) महसूस होने पर।
  • चिड़चिड़ापन होने पर। 
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बवासीर क्या है? जानें, इसके प्रकार, कारण, लक्षण और घरेलू उपचार

Posted 24 May, 2022

बवासीर क्या है? जानें, इसके प्रकार, कारण, लक्षण और घरेलू उपचार

जीवन में भागदौड़ और गलत लाइफ स्टाइल की वजह से अक्सर हम और आप लोग अपनी सेहत और खान-पान की चीजों पर ध्यान नहीं दे पाते। जिसके कारण शरीर में कई बीमारियां उत्पन्न होने लगती है। उन्ही बीमारियों में से एक बवासीर भी है। बवासीर एक ऐसी बीमारी है जो बेहद तकलीफदेह होती है। इस स्थिति में मलाशय (Rectum) के निचले हिस्से और गुदा (Anus) के अंदर सूजन आ जाती है। जिसके कारण गुदा के अंदर या मलाशय के शुरूआती हिस्सों पर मस्सें बनने लगते हैं। यह मस्से कभी अंदर रहते है, तो कभी बाहर आ जाते हैं। अमूमन 60 से 70 प्रतिशत लोगों को अपने उम्र के किसी न किसी पड़ाव में बवासीर की समस्या से जरुर गुजरना पड़ता है। समय रहते इसका इलाज न कराने पर तकलीफ काफी बढ़ सकती है। 

बवासीर क्या है?

बवासीर एक तरह की सूजन है, जो गुदा और निचले हिस्से (मलाशय) में होती है। गुर्दे और निचले मलाशय के भीतर अंदर की ओर छोटी-छोटी रक्त वाहिकाओं (नसों) का नेटवर्क होता है। कभी-कभी यह नसें अधिक चौड़ी हो जाती हैं और इनमें सामान्य से अधिक रक्त भर जाता हैं। तब यह नसें और ऊपर की ऊतकें (Tissues) बवासीर नामक सूजन को उत्पन्न करती हैं। बवासीर कुछ लोगों में बहुत आम और कुछ लोगों में अधिक रक्तस्राव विकसित करता हैं। शौचालय जाने पर रक्तस्राव होना इसका सबसे आम लक्षण है। लेकिन बड़ा बवासीर शौचालय जाने पर श्लेष्म का रिसाव (Mucus leakage), दर्द, जलन और खुजली उत्पन्न कर सकता है। बवासीर को मेडिकल भाषा में हेमोर्रोइड्स (Hemorrhoids) भी कहा जाता है।

 

बवासीर के प्रकार

बवासीर दो प्रकार के होते हैं। पहला आतंरिक बवासीर और दूसरा बाहरी बवासीर। चलिए विस्तार पूर्वक जानते हैं इनके प्रकारों के बारे में-

आंतरिक बवासीर (Internal Hemorrhoids)

आंतरिक बवासीर का सबसे आम पहचान मल त्याग के दौरान खून का बहना है। इसलिए इसे खूनी बवसीर के नाम से भी जानते है। यह समस्या मलाशय (Rectum) के शुरुआत में और गुदा (Anus) के अंदर होता है। इसमें गुदा के अंदर मस्से हो जाते हैं। जब यहां ऊतक (मस्से) बड़े हो जाते हैं, तो यह बाहर निकल सकते हैं, जिसे प्रोलैप्स (Prolapse) कहा जाता है। इसमें मल त्याग करते समय खून मल के साथ थोड़ा-थोड़ा टपकता है या पिचकारी के रूप में आने लगता है। मल त्यागने के बाद मस्से अपने आप अन्दर चले जाते हैं। लेकिन गंभीर अवस्था में यह हाथ से दबाने पर भी अन्दर नहीं जाते। इसलिए बिना नज़रअंदाज किए इस तरह के बवासीर का तुरंत इलाज कराना चाहिए। 

बाहरी बवासीर(External Hemorrhoids)

बवासीर का यह प्रकार गुदा के बाहर होती है। इसके मस्सों में रक्तस्राव नहीं होता और यह मस्से बाहर आसानी से देखे जा सकते हैं। इससे पीड़ित व्यक्ति को प्रभावित जगहों पर खुजली एवं जलन होती है। इसे आम बोल-चाल की भाषा में बादी बवासीर के नाम से भी जानते है। शुरुआती अवस्था में यह अधिक तकलीफ नहीं देते। लेकिन गलत खान-पान और कब्ज रहने की वजह से यह मस्से फूल जाते हैं। साथ ही इन मस्सों में रक्त का थक्का बन जाता है और सूजन हो जाती है। जिसके कारण व्यक्ति को असहनीय दर्द का सामना करना पड़ता है। इस तरह के बवासीर में मल त्याग करने के बाद प्रभावित हिस्सों को साफ करने में भी कठिनाई होती है।

 

बवासीर होने के लक्षण

  • मलाशय से रक्त निकलना।
  • मल का सख्त और मोटा होना।
  • मल त्याग करते समय कठिनाई महसूस करना।
  • मल त्याग करते समय अधिक जोर लगाना।
  • शौच करते समय असहनीय दर्द होना।
  • गुदा के आस-पास खुजली, लालीपन, जलन और सूजन रहना।
  • शौच के वक्त म्यूकस का आना।
  • लंबे समय तक शौचालय में बैठना।
  • बार-बार मल त्यागने की इच्छा होना लेकिन शौच करते समय मल न निकलना।
  • गुदा के आस-पास एक या उससे अधिक कठोर गांठ का बनना। 

 

बवासीर होने के कारण और जोखिम कारक-

आयुर्वेद में बवासीर को अर्श के नाम से जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि बवासीर वात, पित्त एवं कफ तीनों दोषों के दूषित होने से होता है। इसलिए इसे त्रिदोषज रोग के नाम से भी जानते हैं। आयुर्वेद के अनुसार जिस बवासीर में वात या कफ की प्रधानता होती है, उसे शुष्क अर्श कहते हैं। इस तरह के बवासीर मे रक्त स्राव नहीं होता लेकिन इसमें अधिक पीड़ा होती है। इसके विपरीत जिस अर्श में रक्त एवं पित्त की प्रधानता होती है, उसे आर्द्र अर्श कहा जाता है। इस तरह के बवासीर में रक्तस्राव होता है। इसके अलावा बवासीर होने के पीछे कुछ अन्य कारण भी होते हैं। 

  • कब्ज।
  • गर्भावस्था।
  • आनुवंशिकी और बढ़ती उम्र होने पर।
  • लंबे समय तक बैठे रहने पर खासकर शौचालय में।
  • गुदा या मलाशय के ऊतकों का कमजोर होने पर।
  • कई घंटो तक खड़े होकर काम करने पर।
  • फाइबर युक्त भोजन का सेवन न करने पर। 
  • सही समय पर भोजन न करने पर।
  • ज्यादा तेल एवं मिर्च मसाले का सेवन करने पर।
  • शारीरिक श्रम की कमी होने पर।
  • हेल्थ सप्लीमेंट्स दवाओं का अधिक सेवन करने पर।
  • तनाव, अवसाद या चिंता करने पर।
  • मोटापा आदि।

बवासीर होने पर निम्न बातों पर ध्यान दें-

  • ताजे फल एवं सब्जियों को अपने आहार में शामिल करें।
  • अधिक फाइबर युक्त आहार जैसे फलियां और साबूत अनाज का सेवन करें।
  • तले-भूने और जंक फ़ूड का सेवन न करें।
  • भोजन को चबाकर खाएं।
  • भोजन करते समय पानी न पिएं।
  • प्रतिदिन करीब 4 से 5 लीटर पानी जरूर पिएं।
  • प्रतिदिन स्नान करें और गुदा क्षेत्र को ठीक से साफ करें।
  • चाय, काफी, धूम्रपान आदि का सेवन करने से बचें।
  • मल त्यागते समय अधिक जोर न लगाएं।
  • शराब के सेवन से दूरी बनाएं।
  • नियमित रूप से सुबह टहलें और व्यायाम करें।

बवासीर के घरेलू उपचार-

 

एलोवेरा

एलोवेरा बवासीर से पीड़ित व्यक्तियों के लिए लाभकारी होता हैं। यह आतंरिक और बाहरी दोनों प्रकार के बवासीर के लिए फायदेमंद है। इसके लिए एलोवेरा जेल को गुदा के मस्सों पर लगाएं। इससे जलन और खुजली दोनों शांत होता है। ऐसा कुछ दिनों तक करने से बवासीर ठीक हो जाते हैं। इसके अलावा एलोवेरा के गुदों को प्रतिदिन नियमित रूप से खाएं। ऐसा करने से पेट में कब्ज नहीं बनता और मल त्यागने में आसानी होती है।

सेब का सिरका

बवासीर होने पर सेब का सिरका एक अन्य प्रभावशाली उपचार है। सेब का सिरका अपने कषाय गुणों की वजह से रक्तवाहिनियों को सिकुड़ने में सहायक होता है। आतंरिक बवासीर से पीड़ित व्यक्तियों को एक गिलास पानी में एक चम्मच सेब के सिरके को डालकर दिन में दो बार पिएं। इसके अलावा बाहरी बवासीर के लिए सेब के सिरके में रुई भिगोकर कुछ समय तक गुदा के मस्सों पर रखें। ऐसा करने से जलन और खुजली से राहत मिलती है।

टी ट्री ऑयल

टी ट्री ऑयल के लाभकारी गुण बवासीर के लिए बेहद कारगर होते हैं। यह सूजन के लक्षणों को कम करते हैं। इस तेल में मौजूद एंटी इंफ्लेमेंटरी यौगिक सूजन के अलावा दर्द को भी कम करते हैं और एंटीऑक्सीडेंट खुजली, जलन को ठीक करने में कारगर साबित होते हैं। इसके लिए टी ट्री ऑयल की कुछ बूंदो को कैरियर ऑयल में मिलाकर मस्सों पर लगाएं।

लहसुन हैं लाभप्रद

लहसुन एंटी बायोटिक गुण से समृद्ध होता है। जो बवासीर के लक्षणों को ठीक करने में मदद करता है। इसके अलावा लहसुन में एलिसिन नामक यौगिक पाया जाता है, जो एंटी इंफ्लामेंटरी और एंटी माइक्रोबियल गुणों को प्रदर्शित करता है। यह सभी गुण सूजन एवं दर्द को भी कम करते है। इसके लिए कुछ कच्चे लहसुन की कलियों को लेकर पानी में उबालकर कुछ देर तक ठंडा होने के लिए रख दें। अब इस पानी में कॉटन भिगोकर प्रभावित स्थानों पर लगाएं। ऐसा करने से मस्से सिकुड़ जाते हैं। इसके अलावा आतंरिक बवासीर से पीड़ित व्यक्ति को कच्चे लहसुन के कुछ कलियों को छीलकर कुचल लें। अब इसे मलाशय के अंदर रखकर रात भर के लिए छोड़ दें। ऐसा करने से खूनी बवासीर में आराम मिलता है।

 

बवासीर के अन्य घरेलू उपचार-

  • जैतून के तेल में सूजन ठीक करने वाले गुण मौजूद हैं। यह रक्तवाहिकाओं में आई सूजन को कम करता है। इसके लिए जैतून के तेल को बाहरी बवासीर के मस्सों पर लगाएं।
  • बादाम के तेल में रुई को डुबोकर मस्सों पर लगाने से सूजन और जलन से राहत मिलती है।
  • नारियल की जटाओं को जलाकर राख बना लें। अब इस रख को ताजे मट्ठे में मिलाकर सुबह खाली पेट नियमित रूप से पिएं। ऐसा करने से आतंरिक बवासीर में फायदा पहुंचाता है।
  • अंजीर भी बवासीर के लिए अच्छा उपाय है। इसके लिए तीन अंजीर को एक गिलास पानी में भिगों दें। अब इसका सेवन सुबह खाली पेट करे साथ में इस पानी को भी पिएं। ऐसा करने से बवासीर में आराम मिलता है।
  • आतंरिक बवासीर में जीरे को भूनकर मिश्री के साथ पीसकर चूर्ण बना लें। अब इस चूर्ण की 1-2 ग्राम मात्रा को नियमित रूप से दिन में 2-3 बार मट्ठे के साथ लें। इससे बवासीर में लाभ मिलता है।
  • नींबू के रस में अदरक और शहद मिलाकर सेवन करने से बवासीर में फायदा पहुंचता है।
  • छाछ बवासीर रोग में अमृत का काम करता है। इसके लिए एक गिलास छाछ में एक चौथाई अजवायन पाउडर एवं एक चम्मच काला नमक मिलाकर प्रतिदिन दोपहर को भोजन के साथ सेवन करें। यह बवासीर से आराम पाने का सबसे कारगर उपाय है।
  • बवासीर में राहत पाने के लिए केला का सेवन अच्छा माना जाता है। इसके लिए पके केला को उबालकर दिन में दो बार सेवन करें।
  • मूली के रस का सेवन भी बवासीर के लक्षणों को कम करता है।
  • बाथ टब में गर्म पानी डालकर 10-15 मिनट तक बैठे रहने से बवासीर के दर्द और जलन से आराम मिलता है।
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Causes and Home remedies for Blood in stool

Posted 20 January, 2022

Causes and Home remedies for Blood in stool

Modern lifestyle and especially food habits of people have made them prone to many diseases and disorders. Constipation and gas are the most common problems among these. Food is not digested on time, due to which defecation time becomes very difficult. Due to not being able to digest food properly and being constipated, the stool becomes hard and thick. This leads to more pressure in the anus while passing stool and as a result, blood starts coming from the stool.

What does bloody stool look like?

  • Red blood mixed with stool.
  • Red blood-covered stool.
  • Black stool.
  • Thick blood mixed with stool.

From where does the blood come?

Bleeding can occur from anywhere in the anus. The most common areas are-

In case of bleeding from the rectum or anus

The blood in it looks red and shiny because this blood cannot mix with the stool but sometimes after passing stool we get to see stool covered with blood or blood droplets. For example, bleeding from the anus and haemorrhoids etc.

In case of bleeding from the colon

In this, the blood remains mixed with the stool and the colour of the blood may be more dark red. For example, bleeding from colitis, diverticular disease and intestinal tumours.

In case of bleeding from the small intestine

Blood has to go through a long journey before exiting the body. During this, the colour of the blood darkens and mixes with the stool. Due to this, the colour of the stool becomes black. Therefore, it is also called blood black stool. For example- bleeding from the stomach and duodenal ulcer.

Causes of Blood in stool

There can be many reasons behind blood in the stool. These reasons may vary from person to person. In some cases this cause may be common, in other cases, it may also be a sign of a serious problem. Due to the presence of blood in the stool, the colour of the stool can be black. Therefore, the following are the common causes of blood in the stool-

Intestinal Infection

Many times blood starts coming into the stool due to infection in the intestines. This problem occurring in the intestines is called gastroenteritis. This disease occurs due to reasons like viruses, bacteria, food poisoning.

Stomach Ulcer

Due to stomach ulcers, people have to face difficulty in passing stool. In some people, it is also the cause of diarrhoea. A stomach ulcer is called a peptic ulcer which occurs due to a wound or blister in the intestines. It mainly occurs in the lining of the digestive tract. Along with the stomach, it sometimes also happens in the small intestine. Thus, having an ulcer in the stomach is also a reason for blood in the stool. When it occurs, symptoms like thickening of the stool, diarrhoea, less appetite, burning in the stomach can be seen.

Inflammatory Bowel Disease

Inflammatory bowel disease occurs when there is chronic inflammation in the digestive tract due to which the problem of diarrhoea can also occur along with blood in the stool. Sometimes, due to these problems, pus or mucus is also visible in the stool.

Piles

Haemorrhoids are a type of inflammation which is in the anus and lower part (rectum) inside the kidney and lower rectum there is a network of small blood vessels (veins). Sometimes these veins become more dilated and fill with more blood than normal. Then these nerves and the tissues above cause inflammation called piles. Haemorrhoids are very common in some people and develop heavy bleeding. The most common symptom is bleeding when going to the toilet but larger hemorrhoids can cause mucus leakage, pain, burning and itching when going to the toilet.

Anal Fissure

This is a type of cut or crack that occurs around the anus which causes severe pain and blood in the stool. Sometimes the problem of anal fissure (crack in the anus) is also due to the pressure on the anus due to constipation. An anal fissure is caused by a rupture of the lining of the anus. An anal fissure is actually a tearing of the skin of the anus. It is usually small but very painful. Often there is also a small amount of bleeding when the anus is cracked which can be seen while passing stool.

Fistula

The anal glands are located in the middle of the anus which sometimes leads to infection due to which there is an abscess on the anus and after some time pus starts coming. Its symptoms are as follows-

  • It can be caused by cancer, radiation, trauma, Crohn's disease etc.
  • It can also be caused by obesity and prolonged sitting.
  • Can be recognized in the form of pus coming from the mouth, swelling, pain etc.

If there is blood in the stool, pay attention to the following things

  • Drink about 8 to 10 glasses of water daily.
  • Take bath daily and clean the anal area properly.
  • Avoid consumption of tea, coffee, smoking etc.
  • Do not exert too much force while passing the stool.
  • Keep away from the consumption of alcohol.

Home remedies for Blood in stool

  • In Ayurveda, the consumption of buttermilk acts as a medicine in the treatment of diseases like piles and fistula.
  • The initial phase of piles can be cured by changing the diet. Therefore, take special care of food and drink at such times.
  • In Ayurveda, it is recommended to drink rice water and moong dal in the problem of blood in stool, loss of appetite.
  • Use fiber and protein-rich things like green vegetables, lentils, soybeans, fenugreek seeds, etc. in the food.
  • Fried-roasted, hot chilli-spices and maida etc. should not be taken
  • Minimize the consumption of vegetables containing seeds.
  • Take one spoonful of Triphala powder with lukewarm water every night at bedtime. Its use gives relief in problems like constipation.
  • Fluffing small myrobalan in ghee, making its powder and taking it with water is beneficial.
  • Drinking honey mixed with milk provides relief in the problem of blood in the stool.
  • Apart from this, it is also good to consume oats, corn flakes, herbal tea etc. with honey.
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अनिद्रा के कारण,लक्षणऔर घरेलू उपचार

Posted 24 May, 2022

अनिद्रा के कारण,लक्षणऔर घरेलू उपचार

अनिद्रा नींद से संबंधित समस्या है। जिसे अंग्रजी में इंसोमनिया(Insomnia) कहा जाता है। इससे ग्रसित इंसान को सोने में दिक्कत होतीहै। अत:वह इंसान ठीक से सो नहीं पाता। नतीजतन, उसे पर्याप्त नींद नहीं मिल पाती है और वह हमेशा थका-थका महसूस करता है। अनिद्रा के प्रभाव बहुत भयंकर हो सकते हैं। यह आमतौर पर हर समय नींद, सुस्ती और मानसिक व शारीरिक रूप से बीमार होने की सामान्य अनुभूति को बढ़ाती है। मनोस्थिति में होने वाले बदलाव (मूड स्विंग्स), चिड़चिड़ापन और चिंता इसके सामान्य लक्षण हैं। अनिद्रा के कारण होने वाली समस्याओं में अच्छी नींद के अभाव से लेकर नींद की अवधि में कमी से जुड़ी समस्याएं शामिल हैं। अनिद्रा रोग किसी भी उम्र के व्यक्ति को प्रभावित कर सकती है। यह वयस्क पुरुषों की तुलना में वयस्क महिलाओं में अधिक आम है। नींद विकार शिक्षा और काम के प्रदर्शन को कमजोर कर देता है। साथ ही, यह मोटापे, चिंता, अवसाद, चिड़चिड़ापन, एकाग्रता की समस्याओं, याददाश्त से जुडी समस्याओं, प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) की कार्यक्षमता को कमज़ोर और प्रतिक्रिया समय (reaction time) को कम करने का कारण बनता है।

 
अनिद्रा के प्रकार-

अनिद्रा को आमतौर पर तीन प्रकारों में विभाजित किया जाता है–

 
अस्थायी अनिद्रा-

यह तब होती है, जब लक्षण तीन रातों तक रहते हैं।

 
एक्यूट अनिद्रा-

इसे अल्पकालिक अनिद्रा भी कहा जाता है। इसके लक्षण एक रात से लेकर कई हफ्तों तक जारी रह सकते हैं।

 
क्रोनिक अनिद्रा-

यह समस्या आमतौर पर महीनों और कभी-कभी सालों तक रहती है।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के मुताबिक, क्रोनिक अनिद्रा के ज़्यादातर मामले किसी अन्य प्राथमिक (primary) समस्या से उत्पन्न हुए दुष्प्रभाव होते हैं।

 
अनिद्रा के लक्षण-
  • रात में देर तक जागना।
  • नींद न पूरी होने के कारण थकावट महसूस होना।
  • सोने से पहले देर तक जागना।
  • सोने के लिए अलग-अलग तरह के तरीके अपनाना।
  • देर से सोने के बाद जल्दी उठ जाना।
  • हीन एकाग्रता और ध्यान केंद्रित करने की क्षमता में कमी।
  • याददाश्त कमज़ोर होना।
  • कुसमायोजित (uncoordinated) हो जाना।
  • चिड़चिड़ापन और सामाजिक रूप से मिलना-जुलना बंद कर देना।
  • थके होने और पर्याप्त नींद न लेने के कारण होने वाली मोटर वाहन दुर्घटनाएं।
अनिद्रा के कारण-

अनिद्रा आमतौर पर तनाव, जीवन की घटनाओं या आदतों का परिणाम होती है।जिससे नींद में बाधा आती है। इसके मुख्य कारणों का इलाज करने से अनिद्रा का समाधान हो सकता है।लेकिन कभी-कभी इसमें कई साल भी लग जाते हैं।

 
क्रोनिक अनिद्रा के कारण-
तनाव-

ऑफिस, स्कूल, स्वास्थ्य, आर्थिक या परिवार से जुड़ी हुई समस्याएं रात में आपके मस्तिष्क को सक्रिय रख सकती हैं।जिसके कारण सोना मुश्किल हो जाता है। तनावपूर्ण जीवन की घटनाएं या मानसिक परेशानी, जैसे किसी करीबी व्यक्ति की मृत्यु या बीमारी, तलाक या नौकरी छूट जाना आदि के कारण अनिद्रा हो सकती है।

 
यात्रा या काम की समय-सारणी (schedule)-

व्यक्ति का सिरकेडियन रिदम (circadian rhythm) एक आंतरिक घड़ी के रूप में कार्य करता है। जो उसके सोने-जागने के चक्र, चयापचय और शरीर के तापमान का मार्गदर्शन करता है। शरीर के सिरकेडियन रिदम के बिगड़ने से अनिद्रा की समस्या हो सकती है। इसके कारणों में विभिन्न समय क्षेत्रों (time zones) में हवाई यात्रा करना, जल्दी या देर वाली पाली (शिफ्ट) में काम करना या पाली (शिफ्ट) का बार-बार बदलना शामिल हैं।

 
सोने की ख़राब आदतें-

सोने की ख़राब आदतों में सोने का अनियमित समय, दिन में सोना, सोने से पहले उत्तेजक गतिविधियां, सोने के लिए उचित वातावरण का अभाव और अपने बिस्तर पर बैठकर खाना या टीवी देखना शामिल हैं। सोने से पहले कंप्यूटर, टीवी, वीडियो गेम, स्मार्टफ़ोन नींद के चक्र में हस्तक्षेप कर सकते हैं।

 
शाम को अधिक मात्रा में भोजन करना-

सोने के समय से पहले हल्का भोजन करना ठीक है।लेकिन बहुत अधिक खाने से सोते समय शारीरिक रूप से असहज महसूस हो सकता है। बहुत से लोग इससे सीने में दर्द का अनुभव करते हैं। एसिड और भोजन का बैकफ्लो पेट से भोजन नलिका (esophagus) की ओर होने लगता है।जिसके कारण अनिद्रा की समस्या हो सकती है।

 
मानसिक स्वास्थ्य संबंधी विकार-

चिंता संबंधी विकार, जैसे कि पोस्ट-ट्रॉमैटिक तनाव विकार नींद को बाधित कर सकते हैं। बहुत जल्दी जाग जाना अवसाद का संकेत हो सकता है। अनिद्रा की समस्या अक्सर अन्य मानसिक स्वास्थ्य विकारों के साथ भी होती है।

 
दवाएं-

कई निर्धारित (prescription) दवाएं नींद में हस्तक्षेप करती हैं, जैसे कि अस्थमा की दवा, हाई बीपी की दवा, या एंटीडिप्रेसेंट दवा आदि। कई ओवर-द-काउंटर दवाएं (बिना प्रिस्क्रिप्शन के मिलनी वाली दवाएं) जिसमेंदर्द की दवाएं, एलर्जी और जुकाम की दवाएं तथा वजन घटाने के उत्पादों में कैफीन और अन्य उत्तेजक शामिलहैं।जो नींद में रुकावट बनते हैं।

 
चिकित्सकीय परिस्थितियां-

अनिद्रा से जुड़ी स्थितियों के उदाहरणों में क्रोनिक दर्द, कैंसर, शुगर (डायबिटीज), हृदय रोग, अस्थमा, गैस्ट्रोइसोफेगल रिफ्लक्स रोग (जीईआरडी; GERD), अतिसक्रिय थायरॉयड, पार्किंसंस रोग और अल्जाइमर रोग शामिल हैं।

 
नींद से संबंधित विकार-

स्लीप एपनिया रात में समय-समय पर सांस लेने से रोकता है।जिसके कारण व्यक्ति सो नहीं पाता। रेस्टलेस लेग्स सिंड्रोम पैरों में अजीब सी सनसनी पैदा करता है और न चाहते हुए भी व्यक्ति को अपने पैर बार-बार हिलाने के लिए विवश होना पड़ता है। ऐसी स्थिति में वह सो नही पाता।

 
कैफीन, निकोटीन और शराब-

कॉफी, चाय, कोला और अन्य कैफीन युक्त पेय, उत्तेजक पदार्थ होते हैं। दोपहर के बाद या शाम को इन्हें पीने से नींद बाधित होती है। तंबाकू उत्पादों में निकोटीन एक और उत्तेजक पदार्थ है।जो नींद में हस्तक्षेप करता है। शराब सोने में मदद कर सकती है।लेकिन यह गहरी नींद को रोकती है और अक्सर व्यक्ति आधी रात में जाग जाता है।

 
अनिद्रा के घरेलू उपचार-
अनिद्रा रोग के लिए पुदीने की चाय-

अनिद्रा के लक्षणों में से एक तनाव को कम करने में पुदीने की चाय का सेवन करना फायदेमंद होता है। यह अच्छी नींद लेने में भी सहयोग करती है। पुदीने की चाय के अलावा, अरोमाथेरेपी के तौर पर पुदीने के तेल का उपयोग भी किया जा सकता है। इसलिए पूरे दिन में कभी भी या सोने से पहले पुदीने की चाय या पुदीने के तेल का उपयोग अनिद्रा के लिए असरदार होता है।

 
अनिद्रा रोग के लिए लैवेंडर का तेल-

अनिद्रा के घरेलू उपचार के तौर पर लैवेंडर तेल का उपयोग भी लाभकारी होता है। कोरिया में छात्राओं पर हुए अध्ययन से पता चला है कि लैवेंडर तेल से की गई अरोमाथेरेपी अनिद्रा को कम करती है। इसके अलावा, एरोमाथेरेपी डिलीवरी के बाद महिलाओं में अच्छी नींद लाने में भी मददगार है। इसलिए इंसोमनिया से पीड़ित मरीजों में नींद की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए लैवेंडर के तेल का उपयोग किया जाता है।

 
कीवी-

कीवी फल के फायदे में अच्छी नींद शामिल है। कीवी फ्रूट एंटीऑक्सीडेंट गुणों से भरपूर होता है। इस कारण यह फल नींद की गुणवत्ता में सुधार करने में उपयोगी होता है। इसके साथ ही इसमें सेरोटोनिन (serotonin- एक प्रकार का केमिकल) मौजूद होता है।जो अच्छी नींद के लिए उपयोगी होता है। कीवी फल की गिनती नींद को बढ़ावा देने वाले फलों में भी की जाती है। इसलिए सोने से एक घंटे पहले कीवी फल का सेवन अनिद्रा की परेशानी में कुछ हद तक आराम पहुंचा सकता है।

 
अनिद्रा रोग के लिए केला-

अनिद्रा के घरेलू उपचार की बात करें, तो केले का सेवन आसान और पौष्टिक उपाय होता है। यह एक गुणकारी फल है।जो कई औषधीय गुणों से भरपूर होता है। एक शोध के अनुसार केला, मेलाटोनिन (एक प्रकार का हार्मोन) से समृद्ध होता है और मेलाटोनिन नींद में सुधार करने का काम करता है।जिससे अनिद्रा की समस्या में कुछ हद तक राहत मिलती है।

 
अनिद्रा के लिए कैमोमाइल-

अनिद्रा के घरेलू उपचार के रूप में कैमोमाइल की चाय का सेवन किया जाता है। यह हर्बल टी अनिद्रा में फायदेमंद साबित हुई है। इसके अलावा, यह चिंता और बुरे सपनों से भी छुटकारा देने में भी मदद करती है। नींद से जुड़े विकारों का इलाज करने के लिए इस खास चाय का सेवन किया जाता है। इसके अलावा, एक अन्य शोध में भी कैमोमाइल मेंनींद को बढ़ावा देने वाले गुण का पता चलता है। जिस आधार पर इसे अनिद्रा में फायदेमंद माना जाता है।

 
शहद और दूध-

स्वास्थ्य के लिए शहद के फायदे और दूध के लाभ तो हैं ही, लेकिन अगर इन दोनों को मिला दिया जाए, तो इसकी गुणवत्ता और बढ़ जाती है। वहीं, शहद-दूध का उपयोग अच्छी नींद के लिए सहायक होता है। दरअसल, एनसीबीआई (National Center for Biotechnology Information) की वेबसाइट पर प्रकाशित एक स्टडी से इस बात की पुष्टि होती है। इस रिसर्च में हृदय रोग के मरीजों को शहद-दूध का सेवन कराया गया।जिसके बाद उनकी नींद की गुणवत्ता में सुधार देखा गया। इस स्टडी के अनुसार यह प्रमाणित हुआ है कि अनिद्रा में शहद-दूध का सेवन उपयोगी है।

 
ग्रीन टी-

नींद आने की दवा के लिए भी ग्रीन टी का सेवन किया जाता है। यह नींद न आने की समस्या से छुटकारा पाने का एक कारगर घरेलू तरीका है। ग्रीन टी एक खास अमीनो एसिड एल-थिएनाइन से समृद्ध होती है।जो नींद को बढ़ावा देने का काम करती है। हालांकि, ध्यान रहे कि लो कैफीन युक्त ग्रीन टी का ही सेवन करें।

कब जाएं डॉक्टर के पास?
  • हीन एकाग्रता होने पर।
  • ध्यान केंद्रित करने की क्षमता काम होने पर।
  • याददाश्त कमज़ोर होने पर।
  • कुसमायोजित (uncoordinated) महसूस होने पर।
  • ज़रूरत से ज्यादा चिड़चिड़ापन होने पर।

उपयुक्त लक्षण दिखाई देने पर तुरंत डॉक्टर से परामर्श लें।

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क्यों होता है वैजाइनल यीस्ट इंफेक्शन? जानें इसके कारण, लक्षण और घरेलू उपचार

Posted 17 March, 2022

क्यों होता है वैजाइनल यीस्ट इंफेक्शन? जानें इसके कारण, लक्षण और घरेलू उपचार

वैजाइनल यीस्ट इंफेक्शन क्या होता है?

वैजाइना में यीस्ट इंफेक्शन कैंडिडा एल्बिकांस नामक फंगस के कारण होता है। योनि (Vagina) में थोड़ा यीस्ट होना सामान्य है, लेकिन कभी-कभी यह संतुलन बिगड़ जाता है और यीस्ट की मात्रा योनि में बढ़ जाती है। हार्मोन्स में बदलाव, वैजाइनल डूशिंग, अनियंत्रित डायबिटीज,अधिक एंटीबायोटिक्स, कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली और कसे हुए गीले कपड़े पहनने की वजह से यह संक्रमण हो सकता है। यह स्थिति योनि में खुजली और जलन का कारण बनती है। गर्भवती महिलाओं में यीस्ट इंफेक्शन होना आम बात है।क्योंकि गर्भावस्था के दौरान हार्मोन, योनि में प्राकृतिक रूप से होने वाले जीवाणुओं के संतुलन को प्रभावित करते हैं। कैंडिडा प्राकृतिक रूप से योनि में होता है। जो आमतौर पर कोई समस्या उत्पन्न नहीं करता।क्योंकि अन्य प्राकृतिक जीवाणु उस पर नियंत्रण रखते हैं। लेकिन गर्भावस्था के दौरान योनि में ग्लाइकोजेन नामक तत्व बढ़ जाता है। यह कैंडिडा की तीव्र वृद्धि को बढ़ावा देता है।जिसकी वजह से यीस्ट संक्रमण होता है। गर्भावस्था के दौरान यीस्ट संक्रमण शिशु के लिए कोई समस्या पैदा नहीं करता।लेकिन इसका उपचार न कराया जाए तो प्राकृतिक प्रसव के दौरान जनन मार्ग से बाहर निकलते समय यह संक्रमण शिशु तक पहुंच सकता है। वैजाइनल यीस्ट इंफेक्शन पुरुषों की तुलना में महिलाओं में अधिक होता है। 4 में से 3 महिलाओं को पूरे जीवन काल में एक बार यीस्ट संक्रमण का अनुभव ज़रूर करती हैं।

 
वैजाइनल यीस्ट इंफेक्शन के लक्षण-
  • योनी में खुजली, जलन या असहजता महसूस होना।
  • योनि या योनि मार्ग में दर्द होना।
  • सेक्स या मूत्र त्याग के समय जलन महसूस होना।
  • सफ़ेद और गाढ़ा योनिस्राव होना।
  • लाल चकत्ते या दाने होना।
  • कभी-कभी यह संक्रमण इतना जटिल हो जाता है कि त्वचा में घाव हो जाते हैं।
वैजाइनल यीस्ट इंफेक्शन के कारण-
गर्भावस्था:

एस्ट्रोजन का बढ़ा हुआ स्तर गर्भावस्था के दौरान महिलाओं में यीस्ट संक्रमण का कारण बनता है।

 
माहवारी:

सामान्य मासिक धर्म चक्र के दौरान हार्मोन के स्तर में परिवर्तन योनि के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है।जो कभी-कभी यीस्ट संक्रमण का कारण बन जाता है। यह मासिक धर्म के दौरान लंबे समय तक पैड्स न बदलने या सफाई न रखने के कारण भी हो सकता है।

 
एस्ट्रोजन का बढ़ा स्तर:

जो महिलाएं गर्भनिरोधक दवाएं लेती हैं उनमें एस्ट्रोजन का स्तर सामान्य से अधिक होता है।जो यीस्ट संक्रमण की संभावना को बढ़ाता है।

 
शुगर:

किसी भी प्रकार की डायबिटीज होने पर यीस्ट संक्रमण होने की संभावना अधिक हो जाती है।

 
एंटीबायोटिक्स:

अधिक मात्रा में एंटीबायोटिक्स (दवाओं) का सेवन सेहत को अच्छा रखने वाले बैक्टीरिया, लैक्टोबैसिलस एसिडोफिलस (lactobacillus acidophilus) को नष्ट कर देता है। जिस कारण यीस्ट की संख्या में वृद्धि होने से संक्रमण पैदा होता है।

 
कमज़ोर इम्यून सिस्टम:

जिन महिलाओं का प्रतिरक्षा तंत्र कॉर्टिकोस्टेरॉइड (corticosteroid) थेरेपी या एचआईवी संक्रमण के कारण कमज़ोर हो जाता है। उनमें भी यीस्ट संक्रमण तेज़ी से फैलता है।

 
वैजाइनल यीस्ट इंफेक्शन से बचाव-
  • डचिंग(Douching) से बचें। यह आमतौर पर पानी और सिरके के मिश्रण से योनि को धोने की एक विधि है। एंटीसेप्टिक और सुगंध से युक्त डच(Douche) की दवा दुकानों परमिलती हैं। यह बोतल या बैग में आता है और ट्यूब के माध्यम से योनि की सफाई के लिए स्प्रे किया जाता है।
  • योनि में डिओडोरेंट या डिओडोरेंट पैड्स के इस्तेमाल से बचें।
  • कॉटन के अंडरगार्मेंट्स का उपयोग करें।
  • ढीले ढाले पैन्ट्स या स्कर्ट्स पहनें।
  • अंडरगार्मेंट्स को गर्म पानी से धोएं।
  • स्वस्थ्य और संतुलित आहार खाएं।
  • गीले कपड़ें (स्विमिंग सूट) तुरंत बदलें।
  • बाथ टब में स्नान करने से बचें।
वैजाइनल यीस्ट इंफेक्शन का इलाज-
कम जटिल यीस्ट संक्रमण-

इसका इलाज दो तरीकों से किया जाता है। पहला, वैजाइनल थैरेपी और दूसरा दवाओं के सेवन द्वारा। यह दोनों ही तरीके डॉक्टर के परामर्श पर ही अपनायें। अर्थात किसी भी प्रकार की दवा का सेवन करने से पहले डॉक्टर की सलाह अवश्य लें। क्योंकि यह दवाएं रिएक्शन (Reaction) भी कर सकती है। जिसके भयंकर परिणाम हो सकते हैं।

 
जटिल यीस्ट संक्रमण-

जटिल यीस्ट संक्रमण का इलाज भी वैजाइनल थैरेपी और मौखिक रूप से ली जाने वाली दवाओं द्वारा ही किया जाता है। इसमें अधिक समय तक वैजाइनल थैरेपी दी जाती है। (लगभग 7 से 14 दिनों की) जिसमें वैजाइनल क्रीम का इस्तेमाल और दवाओं का नियमित सेवन करना पड़ता है।

 
वैजाइनल यीस्ट इंफेक्शन का घरेलू उपचार
नारियल तेल-

नारियल तेल में एंटीफंगल प्रॉपर्टीज़ होती हैं। जिससे वैजाइनल इंफेक्शन में राहत मिलती है। अच्छे ऑर्गैनिक कोकोनट ऑयल को प्राइवेट पार्ट पर बाहरी और अंदर दोनों जगहों पर लगाना फायदेमंद होता है। यह खुजली और दर्द में आराम देकर इंफेक्शन को बढ़ने से रोकता है।

 
लहसुन-

इसे लगाकर नहीं बल्कि खाकर यीस्ट इंफेक्शन में आराम पाया जाता है। क्योंकि लहसुन में एंटीफंगल और एंटीबायोटिक प्रोपर्टीज़ होती हैं।जो स्किन पर होने वाले किसी भी तरह के इंफेक्शन में राहत देने का काम करती हैं। इतना ही नहीं कई वैजाइनल क्रीमों में लहसुन मौजूद होता है। जिससे रेडनेस और दर्द में राहत मिलती है।

 
दही-

दही में अच्छे बैक्टिरिया (प्रोबायोटिक) पाए जाते हैं।जो शरीर में यीस्ट या बुरे बैक्टिरिया को फैलने से रोकते हैं। इसीलिए यीस्ट इंफेक्शन में राहत पाने के लिए दही खाना फायदेमंद होता है और इसे वैजाइना की बाहरी लेयर पर भी लगा सकते हैं। बस ध्यान रखें कि दही सादा हो, उसमें किसी भी प्रकार का कोई फ्लेवर और चीनी न पड़ी हो।

 
एपल साइडर विनेगर-

यीस्ट इंफेक्शन से छुटकारा पाने के लिए सबसे पॉपुलर उपाय है एपल साइडर विनेगर। इसे सीधा वेजिना के आस-पास लगाने के बजाय इसे पीना बेहतर होता है। यीस्ट इंफेक्शन (Vaginal Yeast Infection) में राहत पाने के लिए एपल साइडर विनेगर को दिन में 2 या 3 बार दो-दो चम्मच पिएं।

 
टी ट्री ऑयल-

इस तेल में मौजूद एंटी फंगल प्रोपर्टीज़ यीस्ट को जड़ से खत्म कर देती हैं। यह बात कई रिसर्च में भी साबित हुई हैं। लेकिन इसे डायरेक्ट लगाने के बजाय वेजिटेबल ऑयल या नारियल तेल में में मिक्स करके लगाएं।अगर इसे लगाने से खुजली या जलन हो तो इसे अवॉइड करें।

 
कब जाएं डॉक्टर के पास?

सभी महिलाओं को यीस्ट इंफेक्शन के लक्षण महसूस नहीं होते। क्योंकि संक्रमण काम होने पर लक्षण भी बहुत सूक्ष्म होते हैं। लेकिन निम्न में से कोई भी लक्षण का अनुभव होने पर तुरंत डॉक्टर के पास जाएं-

  • योनि में या इसके आसपास खुजली और दर्द का अनुभव होने पर।
  • योनि के आसपास का स्थान लाल होने पर।
  • सेक्स करने के दौरान तकलीफ होने पर।
  • मूत्र त्याग करते समय चुभन जैसा महसूस होने पर।
  • बदबूदार डिस्चार्ज होने पर।
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मधुमक्खी के डंक मारने के लक्षण और उपचार

Posted 24 May, 2022

मधुमक्खी के डंक मारने के लक्षण और उपचार

मधुमक्खी का डंक मारना एक आम समस्या है किंतु कई लोगों के लिए यह कष्टदायक भी होता है। मधुमक्खी के डंक मारने पर उसके डंक में मौजूद जहर के कारणव्यक्ति को दर्द, घाव और बुखार की समस्या उत्पन्न होती है। इसलिए यदि मधुमक्खी शरीर पर कहीं अपना डंक मार दे तो उस जगह पर सूजन तो आ ही जाती है। साथ ही तेज दर्द भी शुरु हो जाता है।कई बार तो दर्द और जहर के प्रभाव से बुखार भी हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मधुमक्खियों के डंक में जहर होता है। जिससे शरीर में संक्रमण हो जाता है। आयुर्वेद के अनुसार मधुमक्खी के डंक मारने के बाद वात दोष दूषित हो जाता है। डंक को निकालने में चिमटी या किसी भी नूकीली चीज का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। एक ब्लंट ऑबजेक्ट जैसे कि कार्ड या बटर नाईफ (जिसकी तेज धार न हो) को धीरे-धीरे प्रभावित क्षेत्र में खुरच कर डंक को निकालना चाहिए। चिमटी या नूकीली चीज का उपयोग करने से बचें। क्योंकि इससे जहर फैल सकता है।

मधुमक्खी के डंक मारने पर दिखने वाले लक्षण-

मधुमक्खी के डंक मारने पर दर्द और सूजन के अलावा और भी लक्षण होते हैं। हालांकि हर किसी में इसके अलग-अलग लक्षण नजर आते हैं।कुछ लोगों को तेज दर्द होता है तो कुछ में केवल प्रभावित जगह पर सूजन आ जाती है और कुछ के शरीर का प्रभावित हिस्सा लाल पड़ जाता है। आइए जानते हैं इसके कुछ अन्य लक्षणों को-

  • जलन और दर्द।
  • सूजन।
  • लाली।
  • एक दुखद जगह में तापमान में वृद्धि होना।
  • कुछ घण्टों के बाद दर्द का खुजली में बदलना।
  • शरीर के तापमान का बढ़ना।
  • उल्टी।
  • मतली।
  • चक्कर आना।
  • सिरदर्द।
  • दस्त।
  • कमजोरी।
  • रक्तचाप का कम होना।
  • सांस लेने में कठिनाई होना।
  • पेट में दर्द आदि। 

मधुमक्खी के डंक से बचने के उपाय-

  • व्यक्तिगत स्वच्छता बनाए रखें।
  • क्षेत्रों को साफ रखें, खासकर उस जगह को जहां भोजन है।
  • खाद्य कंटेनर और कचरा डिब्बे कवर करके रखें।
  • बगीचे की ट्रिमिंग जैसी गतिविधियों के दौरान सावधानी बरतें।

मधुमक्खी के डंक का उपचार-

मधु/शहद का प्रयोग -

शहद के प्रयोग से मधुमक्खी के डंक में राहत मिलती है। इसके लिए जिस जगह मधुमक्खी ने काटा हो सबसे पहले उस स्थान को अच्छे से साफ़ करें। ध्यान दें कि कोई भी स्टिंग (डंक) काटे हुए स्थान पर न रह सके। इसके बाद इस स्थान पर आर्गेनिक शहद का उपयोग करें और एक लूज बैंडेज से बांध दें।

बेकिंग सोडा-

मधुमक्खी के डंक मारने पर बेकिंग सोडा का उपयोग भी तात्कालिक राहत देता है। शरीर के जिस भाग में मधुमक्खी ने डंक मारा हो, उस भाग में बेकिंग सोडा और पानी को मिला कर बनाया गया पेस्ट लगाएं। इसे कुछ समय (लगभग 10-15 मिनट) के लिए ऐसे ही छोड़ दें। यदि आपको इससे राहत नहीं मिलती है, तो पुनः बेकिंग सोडा और जल का पेस्ट बना कर उस स्थान पर लगाएं।

एप्पल विनेगर-

एप्पल विनेगर भी मधुमक्खी के डंक मारने पर कारगर उपाय होता है। मधुमक्खी के डंक मारे हुए स्थान पर एप्पल विनेगर की कुछ बूंदें डाल कर कुछ समय के लिए छोड़ दीजिए। इससे दर्द से जल्द राहत मिलेगी या किसी साफ़ कपड़े को एप्पल विनेगर में भिगो कर मधुमक्खी के काटे हुए स्थान पर रखें।

टूथपेस्ट-

टूथपेस्ट का प्रयोग भी मधुमक्खी के डंक से राहत देने में काफ़ी लाभदायक होता है। कुछ लोगों का मानना है कि इसमें मौजूद एल्कलाइन तत्व मधुमक्खी के डंक की अम्लीय प्रवृत्ति को शांत कर, इससे राहत प्रदान करता है। 

 

एस्पिरिन टेबलेट-

एस्पिरिन टेबलेट का प्रयोग अधिकतर सिर दर्द और बुखार आदि के लिए किया जाता है। एस्पिरिन टेबलेट को तोड़ कर अथवा इसका हल्का पेस्ट बना कर यदि मधुमक्खी के डंक मारे हुए स्थान पर लगाया जाए तो दर्द औरइचिंग से राहत प्राप्त होती है।

एलोवेरा-

एलोवेरा का प्रयोग अक्सर त्वचा से जुड़ी समस्याओं के उपचार के लिए किया जाता है। इसके प्रयोग से त्वचा नर्म हो जाती है। एलोवेरा पौधा के एक पत्ते को तोड़कर इसे मधुमक्खी द्वारा डंक मारे गए स्थान पर निचोड़ें। ऐसा करने से दर्द और जलन में काफ़ी कमी आ जाती है। स्किन के लिए एलोवेरा काफी फायदेमंद भी होता है।

डॉक्टर के पास कब जाना चाहिए ?

त्वचा पर से पस या सूजन जैसे लक्षणों का कुछ दिनों के भीतर नहीं जानें पर डॉक्टर से परामर्श लें ।

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Cholera- Causes, Symptoms and Home remedies

Posted 17 March, 2022

Cholera- Causes, Symptoms and Home remedies

Cholera is a type of seasonal disorder caused by bacterial infection actively seen in the rainy season. It is caused by eating contaminated food or bacteria, viruses and parasites. This problem is seen in both young children and the elderly. People start complaining of diarrhea and vomiting due to cholera which further results in lack of water in the body (dehydration) leading to weakness. Therefore, if it is not treated in time, it can prove to be fatal.

 

Cholera is a disease related to the digestive system in which the patient starts to vomit with loose stools which usually lasts for 2 to 3 days. In some cases the patients recover soon.

 

Symptoms of Cholera

There are many symptoms of cholera but depending on their cause, one or more symptoms can occur such as-

 
  • Diarrhea
  • Frequent vomiting
  • Lack of water in the body (dehydration)
  • Abdominal cramps
  • Rapid heart rate
  • Frequent dry mouth
  • Feeling thirsty
  • Having low blood pressure
  • Anxiety or irritability
  • Muscle cramps
  • Feeling lethargic
  • Getting more sleep
  • Sunken eyes

Causes of Cholera

The main cause of cholera disease is the ingestion of contaminated food and water through which harmful bacteria called Vibrio cholerae enter the body. These harmful bacteria cause diarrhea, vomiting and many stomach related problems. Apart from this, there can be other reasons for getting cholera which are the following-

 
  • Infection in the stomach
  • Lack of water in the body (dehydration)
  • Drinking contaminated water
  • Consumption of ice made from contaminated water
  • Eating vegetables grown in wastewater
  • Consuming fish found in polluted water or salt water
  • When the digestive power of the person is weak
  • When the contaminated water enters the stomach while swimming
  • Living in very hot or humid climates
  • Eating undercooked and raw meat

Measures to prevent Cholera

  • Take special care of cleanliness
  • Get vaccinated before going to cholera prone places
  • Do not go to places with water logging or stagnant water.
  • Wash hands thoroughly after coming from the toilet
  • Use boiled water
  • Wash hands thoroughly with soap before eating food
  • Drink plenty of fluids
  • Drink a sufficient amount of water daily
  • Pay special attention to your diet
  • Eat fully cooked and hot food
  • Avoid unpasteurized milk and products made from it
  • Avoid consumption of fried and junk food
  • Keep food properly covered
  • Wash fruits or vegetables thoroughly and use them

Home remedies of Cholera

Early stage cholera can be cured with dietary changes such as-

 
  • In cholera, it is advisable to drink water of rice and moong dal.
  • To avoid dehydration, drink plenty of water and fluids like coconut water, lemonade and ORS solution.
  • Mint proves to be effective in getting relief from cholera because the antibacterial properties found in it prove to be helpful in the home treatment of cholera. For this, mint juice or its tea is great.
  • Taking honey with lukewarm water provides relief in loose motion and the problem of cholera. Apart from this, oats, corn flakes, herbal tea etc. can be consumed with honey.
  • Curd or buttermilk is an effective treatment for cholera because curd is full of healthy bacteria. Therefore, apart from improving digestion, it eliminates harmful bacteria called Vibrio cholerae due to which the immunity of the body increases.
  • The properties present in garlic prove to be effective in preventing diseases like cholera. For this, drinking boiled water of garlic is beneficial.
  • Apple cider vinegar is helpful in preventing cholera or loose motions because it has natural antibacterial properties.
  • Mix equal amounts of fenugreek and cumin seeds and fry them on a griddle. Now make a powder of this mixture and take half a teaspoon daily with lukewarm water. By doing this, there is relief in the problem of diarrhea or cholera.
  • Basil leaves are very beneficial for health. Along with this, its leaves also act as medicine in the treatment of cholera. For this, grind basil, neem leaves, camphor and asafoetida and make a tablet of it and let it dry. Taking this tablet in the morning and evening provides relief in cholera.
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Scarlet fever- One of the deadliest fevers that’s there

Posted 17 December, 2021

Scarlet fever- One of the deadliest fevers that’s there

Nowadays it is common to get infected due to a polluted environment due to which people are easily surrounded by diseases like cold and flu (influenza). One of those diseases is scarlet fever which is often seen in young children; however, complaints of this fever are also found in some adults. The symptoms of fever are similar to normal fever but they often start with a sore throat and burning sensation due to which there is difficulty in eating, drinking and swallowing. At the same time, this fever can also prove to be fatal if it is not treated on time. Let us know about the various causes, symptoms and treatment of scarlet fever through this blog.

 

What is scarlet fever?

Scarlet fever is known as Scarlatina in the medical language. This fever is a type of infection that spreads from one person to another. Scarlet fever causes red rashes all over the body. These rashes first appear on the face. After that, these spread to the throat and the whole body. Its initial symptoms are like sunburn in appearance. If a child has a sore throat, then in this condition he is more likely to get scarlet fever because of the bacteria that spreads scarlet fever. The same bacteria also cause sore throat. This type of fever is mostly seen in children between 4 and 15 years of age.

 

Symptoms of Scarlet fever

The initial symptoms of scarlet fever are similar to those of a sunburn but ignoring them can lead to serious consequences. In the absence of treatment, there is a high possibility of its bacteria(s) growing. It is an infection spread through contaminated food and water. Let's look at the common symptoms of scarlet fever-

 

Red rash on the body-

When there is scarlet fever, the first symptom is a red rash-like sunburn that starts appearing on the body of children. Usually, this rash starts in the mouth and then spreads from the neck to the chest, abdomen, hands and feet. If children itch somewhere on these grains, then these rash turns yellow.

 

Redline visible-

In scarlet fever, along with the rash, red lines are seen on many parts of the body like the waist, elbows, knees and neck etc. which slowly starts to deepen.

 

Swelling of face-

Yellow circles appear on the face due to scarlet fever. This makes the face look swollen.

 

Tongue dark red (strawberry-like)

When there is scarlet fever, the tongue feels deep red and raised. Apart from this, a white coating also gets on the tongue.

 

Other possible symptoms of scarlet fever-

  • Feeling difficulty swallowing.
  • Having trouble speaking.
  • Vomiting and nausea.
  • Loss of appetite.
  • Feeling weak.
  • Pain in joints and muscles.

Causes of Scarlet fever

There are many reasons why people can suffer from scarlet fever. Mainly scarlet fever is caused by the growth of Streptococcus pyogenes bacteria in the body. This same bacteria also spread infection in the throat and mouth which cause sore throat, burning sensation and sore throat etc.

 

It is said about this bacteria that if this bacteria or virus enters the body, then it infects the whole body in 2 to 3 days. These bacteria create toxic elements in the body due to which red rashes occur in the body.

 

Let us know about some of the reasons for this-

  • Consumption of food and water containing contaminated bacteria.
  • By coming in contact with infected persons.
  • Due to the ingress of microscopic particles present in the contaminated air inside the body.
  • Weakness of immunity.
  • Transfusion of contaminated blood during treatment.

Precautions for Scarlet Fever

  • Take special care of cleanliness.
  • Do not smoke.
  • Keep children away from dusty and polluted places.
  • Keep a handkerchief over your mouth when you have a cold and cough.
  • Do not use anyone's used utensils and food items.
  • Don't feed your pickings food to your kids.
  • Do not share your bed, towel, pillow etc. with anyone else.
  • Wash your hands with warm water and soap.
  • Drink clean boiled water.
  • Do not consume raw food.
  • Eat only properly cooked and hot food.
  • Avoid drinks and foods from outside stores.
  • Wash hands thoroughly with soap before eating food.
  • Teach children to wash their hands too.
  • Keep infected people away from household tasks.

Home remedies for Scarlet fever

Take a good rest

Taking enough rest is very essential for the body in scarlet fever as it helps in avoiding exertion and further deterioration of health.

 

Drink plenty of fluids

Drink warm liquids like tea and soup to get relief from sore throat and swelling.

 

Apart from this, give more and more fluids like boiled water, fresh fruit juice, herbal tea etc. to the children to avoid the problem of dehydration.

 

Keep children in a moist environment

Moist air provides relief in rashes and swelling in children's bodies. Along with this, it also helps in healing the throat of the child.

 

Gargle with warm saltwater

Gargle with a teaspoon of salt in 1 cup of warm water. By doing this, you and your children get relief from sore throat and swelling.

 

Tulsi

Tulsi is used as a home remedy for cough, cold, diarrhoea or other infections. It kills viruses and bacteria in the body and also enhances immunity.

 

Honey Tea-

Honey mixed tea is one of the home remedies for scarlet fever because it helps in reducing both throat discomfort and fever. Therefore, this tea (honey mixed tea) proves to be beneficial in case of scarlet fever or sore throat.

 

Apple cider vinegar-

Apple cider vinegar is one of the best medicines for scarlet fever because it contains acetic acid which has antimicrobial properties that fight against bacterial and virus infections.

 

Lemon and honey are effective-

According to Ayurveda, both lemon and honey have immunity-boosting properties, that is why Ayurvedic doctors recommend the use of lemon and honey in case of scarlet fever because this mixture detoxifies the body and also increases immunity of the body. For this, take a glass of lukewarm water mixed with lemon juice and honey.

 

Coriander is helpful-

Coriander tea works as an effective medicine in scarlet fever. Coriander seeds enhance the body's immune system to fight viruses and bacteria. For this, make tea by adding a tablespoon of coriander powder, a little milk and sugar in a glass of water and give it to the patient twice a day.

 

When to go to the Doctor?

  • Facing trouble while breathing.
  • Severe swallowing problems.
  • Fever above 101 degrees F or 38 degrees C.
  • Having difficulty sleeping.
  • Having more rashes on the body.
  • When sore throat or swollen lymph glands appear.
  • If there is severe pain in the stomach, nausea or vomiting etc.
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कैसा होता है नाभि का इन्फेक्शन? जानें इसके कारण, लक्षण और घरेलू उपाय

Posted 24 May, 2022

कैसा होता है नाभि का इन्फेक्शन? जानें इसके कारण, लक्षण और घरेलू उपाय

शरीर में नाभि कई प्रकार के रोगाणुओं के विकसित होने के लिए एक अनुकूल जगह होती है। धूल, बैक्टीरिया, फंगस और अन्य कई प्रकार के रोगाणु नाभि के अंदर फंस जाते हैं और अपनी संख्या को बढ़ाने लगते हैं। इस कारण संक्रमण फैलता है। जिन लोगों का हाल ही में कोई पेट का ऑपरेशन हुआ है, उन्हें नाभि में इन्फेक्शन होने के जोखिम अधिक होते हैं। कुछ ऐसी स्थितियां, जो अक्सर शिशु व बच्चों को होती हैं, जैसे थ्रश और एथलीट्स फुट आदि यह संक्रमण नाभि में फैलते हैं। संक्रमण के चलते नाभि से सफेद, पीला, ब्राउन या खून जैसा द्रव निकलता है। जिससे अजीब सी बदबू भी आती है। इस वजह से नाभि में फंगल इंफेक्शन के साथ-साथ कई अन्य जीवाणु संक्रमण हो जाते हैं। जिसकेकारण खुजली, जलन, तथा मूत्र त्याग करते वक्त नाभि में दर्द जैसी समस्याएं देखने को मिलती हैं। डॉक्टर इस स्थिति की जांच रोगी के लक्षणों और शारीरिक परीक्षण के आधार पर करते हैं। नाभि में इन्फेक्शन और उसके कारण होने वाले नाभि के डिस्चार्ज से बचने का सबसे बेहतर तरीका उसकी देखभाल करना ही होता है। नाभि के संक्रमण के इलाज एंटीबायोटिक्स, एंटीफंगल क्रीम या कोर्टिकोस्टेरॉयड क्रीम आदि से किया जाता है। वहीं, कुछ गंभीर मामलों में ऑपरेशन भी करना पड़ सकता है।

 
नाभि में इन्फेक्शन के लक्षण -

नाभि में संक्रमण होने पर लोगों को महसूस होने वाले सबसे आम लक्षण निम्नलिखित हैं:

  • नाभि में लगातार खुजली या झुनझुनी महसूस होना।
  • नाभि से हल्के हरे, पीले या ब्राउन रंग का मवाद या पस निकलना।
  • नाभि से निकलने वाले डिस्चार्ज (मवाद या द्रव) से बदबू आना।
  • नाभि से खून आना।
  • नाभि व उसके आस-पास के क्षेत्र में दर्द, सूजन और लालिमा होना।
  • त्वचा का अधिक गर्म होना।
  • उल्टी और चक्कर आना (यह लक्षण सिर्फ गंभीर मामलों ही महसूस होता है)
नाभि में इन्फेक्शन के कारण-
नियमित रूप से छूना -

नाभि को बार-बार छूने से भी इसमें इन्फेक्शन होने के जोखिम बढ़ जाते हैं। क्योंकि हमेशा हमारे हाथ स्वच्छ नहीं होते। इस वजह सेबार-बार नाभि को छूने से नाभि में बैक्टीरिया या फंगस जमा होने का खतरा बढ़ जाता है। नाभि में नम व गर्म वातावरण होने के कारण सूक्ष्मजीव तेजी से विकसित होकर संक्रमण फैलाते हैं।

 
स्वच्छता में कमी -

खराब स्वच्छता नाभि में इन्फेक्शन का मुख्य कारण है। रोजाना न नहाने से सूक्ष्मजीव आसानी से नाभि में जमा होने लगते हैं। जिससे नाभि में इन्फेक्शन होने लगता है। इसके अलावा अशुद्ध पानी के साथ नहाना भी नाभि में इन्फेक्शन होने के जोखिम को बढ़ा देता है। हालांकि सबसेमहत्वपूर्ण बात यह है कि नहाते समय नाभि को साफ न करना और नहाने के बाद नाभि के अंदर जमा साबुन व पानी को न निकालना सूक्ष्मजीवों को बढ़ने में मदद करता है।

 
बैक्टीरियल इन्फेक्शन-

नाभि को अलग-अलग प्रकार के बैक्टीरिया के लिए घर माना जाता है। यदि आप उस क्षेत्र को अच्छे से साफ नहीं करेंगे तो बैक्टीरिया नाभि में इन्फेक्शन पैदा कर देते हैं। बैक्टीरियल इन्फेक्शन के कारण नाभि से हरे या पीले रंग का बदबूदार डिस्चार्ज निकलने लगता है। इस स्थिति में सूजन और दर्द होने लगता है और नाभि के आस-पास पपड़ी बन जाती है।

 
यीस्ट इन्फेक्शन-

कैंडिडिआसिस (Candidiasis) एक प्रकार का यीस्ट इन्फेक्शन होता है। जो कैंडिडा (Candida) नाम के एक प्रकार के यीस्ट से पैदा होता है। यह एक ऐसा यीस्ट होता है, जो शरीर के नम और गहरे हिस्सों (जहां धूप व हवा का संपर्क न हो पाए) में विकसित होते हैं। यह त्वचा की सिलवटों (त्वचा पर त्वचा चढ़ी होना) में होते हैं। जैसे ग्रोइन (ऊसन्धि) और आपकी बांहों के नीचे। यीस्ट आपकी नाभि में भी जमा हो सकते हैं।विशेष रूप से यदि आप अपनी नाभि को अच्छे से साफ न करें तो। इससे नाभि में लाल और खुजलीदार चकत्ता बन जाता है और गाढ़ा सफेद डिस्चार्ज निकलने लगता है।

 
डायबिटीज़-

जिन लोगों को डायबिटीज़ रोग होता है। उनमें नाभि का इन्फेक्शन होने की संभावनाएं और अधिक होती हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि यीस्ट शुगर को खाते हैं और डायबिटीज के कारण खून में शुगर की मात्रा बढ़ जाती है।

 
सर्जरी-

यदि हाल ही में किसी व्यक्ति की कोई सर्जरी हुई है। जैसे-हर्निया की सर्जरी आदि।तो ऐसे में नाभि से पस बहने लगता है। यदि ऐसा होता है तो तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें। क्योंकि यह एक गंभीर इन्फेक्शन का संकेत हो सकता है। जिसका उपचार करना आवश्यक है।

 
उराचल सिस्ट (Urachal cyst) -

जब बच्चा अपनी मां के गर्भ में पल रहा होता है, तो उसका मूत्राश्य उराचस नाम की एक पतली सी नली के माध्यम से गर्भनाल से जुड़ा होता है। इस तरह से गर्भ में रहने के दौरान पेशाब को बच्चे के शरीर से बाहर निकाला जाता है। उराचस नली आमतौर पर जन्म से पहले ही बंद हो जाती है।लेकिन कई बार यह पूरी तरह से बंद नहीं हो पाती और थोड़ी बहुत खुली रह जाती है।

 
सिबेशियस सिस्ट (Sebaceous cyst) -

यह एक प्रकार की गांठ होती है।जो नाभि के साथ-साथ शरीर के अन्य कई हिस्सों में विकसित हो सकती है। यह एक तेल जारी करने वाली ग्रंथि से विकसित होती है। इसे सिबेशियस ग्रंथि (Sebaceous glands) कहा जाता है। इसमें सिस्ट के मध्य में एक काले मुंह वाला मुंहासा होता है। यदि यह सिस्ट संक्रमित होती है तो इसमें से पीले रंग का गाढ़ा बदबूदार द्रव बहता है। सिस्ट में सूजन भी आ सकती है और उसका रंग लाल भी हो सकता है।

 
नाभि में इन्फेक्शन से बचाव-
  • नाभि को ध्यान से व नरम उंगलियों के साथ साबुन से अच्छे से धोएं। इसके लिए ऐसे साबुन का इस्तेमाल करें, जो बैक्टीरिया से लड़ने में मदद करता है। नहाते समय भी रोजाना नाभि को धोएं।
  • नाभि को धोने के बाद उसे गीला न छोड़ें अर्थात अच्छे से तौलिये से पोछकर सुखाएं। गीला छोड़ने से संक्रमण बढ़ सकता है।
  • पूरे दिन नाभि को टैल्कम पाउडर से ड्राई रखने की कोशिश करें।
  • स्पोर्ट्स वाले कपड़ों को नियमित रूप से बदलते रहें। ऐसा करने से पसीना बार-बार नाभि पर नहीं लगेगा और नाभि ड्राई रहेगी।
  • व्यायाम करते समय ऐसे कपड़े पहनें जिनमें आपकी स्किन को सांस मिल सके। और जो पसीना भी सोखसके।
नाभि में इन्फेक्शन का खतरा कब बढ़ जाता है?

कुछ निश्चित प्रकार के कारक हैं जो नाभि में इन्फेक्शन होने के जोखिम को बढ़ा देते हैं, जैसे-

  • मोटापा।
  • पेट की सर्जरी या गर्भावस्था।
  • नाभि के आस-पास कोई घाव या चोट आदि लगना।
  • कुछ प्रकार के खास कपड़े।
नाभि में इन्फेक्शन की जांच-

संक्रमण के संकेतों का पता लगाने के लिए खून टेस्ट, खून के सैंपल से निम्नलिखित टेस्ट किए जाते हैं:

  • टोटल ल्यूकोसाइट काउंट ( Total leukocyte count)।
  • डिफरेंशियल ल्यूकोसाइट काउंट (Differential leukocyte count)।
  • ईएसआर टेस्ट पस कल्चर एंड सेन्सिविटी (नाभि से निकलने वाले डिस्चार्ज का सेंपल लेना)।
  • कई बार डॉक्टर्स सैंपल के रूप में मवाद या नाभि में से संक्रमित कोशिका का टुकड़ा निकालते हैं और उसको टेस्टिंग के लिए लैब भेज देते हैं। परीक्षण करने वाले डॉक्टर माइक्रोस्कोप की मदद से मवाद या कोशिका के सैंपल की जांच करते हैं और पता लगाते हैं कि व्यक्ति को संक्रमण है या नहीं।
नाभि में इन्फेक्शन के घरेलू उपाय-
हल्दी-

हल्दी बेहतरीन ऑक्सीडेंटल एंटीबैक्टीरियल तत्व मानी जाती है।क्योंकि इसमें उपस्थित कई प्रकार के एंटीबॉडीज शरीर को इंफेक्शन से बचाते हैं। साथ ही इंफेक्शन होने के बाद भी उनसे छुटकारा दिलानेमें मदद करते हैं।उपयोग हेतु हल्दी का लेप बनाकर इंफेक्शन वाले क्षेत्र में लगाएं।

 
नीम-

नीम के साथ हल्दी पाउडर बेहतर रिजल्ट प्रदान करता है। इसी वजह से हल्दी का लेप बनाते वक्त नीम के कुछ पत्तों को कूटकर अंदर डाल दें और फिर इस लेप को इन्फेक्शन के स्थान पर लगा दें।

 
टी ट्री ऑयल-

नाभि में इन्फेक्शन के इलाज के लिए टी ट्री ऑयल सबसे प्रचलित उपचारों में से एक है। टी ट्री ऑयल में नारियल का तेल मिलाकर भी उसे दिन में कई बार प्रभावित क्षेत्र पर लगाया जाता है।

 
नारियल का तेल-

नारियल के तेल में एंटीफंगल और रोगाणुरोधी तत्व पाए जाते हैं। यह इन्फेक्शन का कारण बनने वाले बैक्टीरिया को मार देते हैं और फंगी के विकसित होने की गति को धीमा कर देते हैं। इसके अलावा नारियल का तेल नाभि के संक्रमण से जुड़ी लालिमा, दर्द और त्वचा की गर्मी को भी कम करता है।

 
एलोवेरा-
  • एलोवेरा का रस इस फंगल इंफेक्शन से छुटकारा प्रदान करने में मदद करता है। साथ ही नमक वाले गर्म पानी से फंगल इंफेक्शन को दिन में एक-दो बार धोने से काफी फायदा मिलता है।
  • नाभिक की त्वचा को स्नान करने के बाद तौलिया द्वारा अच्छे से पौंछ लें। अर्थातनाभि को स्वच्छ व सूखा रखें।
  • इन्फेक्शन हटाने के लिए एंटीफंगल क्रीम या पाउडर का इस्तेमाल करें। इसके अलावाज्यादा इन्फेक्शन होने के परएंटीफंगल शैंपू से स्नान करना शुरू कर दें।।
  • ज्यादातर नाभि में फंगल इंफेक्शन होता है। ऐसे में मीठे पदार्थों और तैलीय पदार्थों का सेवन कमकरें।
कब जाएं डॉक्टर के पास?

यदि आपकी नाभि से डिस्चार्ज बह रहा है तो डॉक्टर को दिखा लें।क्योंकि यह एक गंभीरसंक्रमणका संकेत हो सकता है।इसके अलावानाभि में संक्रमण के निम्न लक्षणों में तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें-

  • तेज बुखार होने पर।
  • त्वचा पर लालिमा होने पर।
  • पेट में टेंडरनेस (छूने पर दर्द होना) होने पर।
  • पेशाब करने के दौरान दर्द होने पर।
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क्या है सेरेब्रल मलेरिया?जानें इसके लक्षण, कारण और उपाय

Posted 17 March, 2022

क्या है सेरेब्रल मलेरिया?जानें इसके लक्षण, कारण और उपाय

सेरेब्रल मलेरिया (Cerebral Malaria) मलेरिया बुखार का सबसे खतरनाक और जानलेवा रूप है। जो मस्तिष्क को प्रभावित करता है। मलेरिया के पैरासाइट ब्रेन तक पहुंच जाएं तो वह बेहद घातक साबित होते हैं।इसी स्थिति को सेरेब्रल मलेरिया या दिमागी बुखार कहा जाता है। डब्ल्यूएचओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन) के मुताबिक, मलेरिया के परजीवी पांच तरह के होते हैं।इसमें सबसे घातक फैल्सिपेरम मलेरिया होता है। अगर यह परजीवी रक्त संचारण से होता हुआ ब्रेन तक पहुंच जाए तो इसके घातक परिणाम हो सकते हैं। यह प्लाज़ोडियम फाल्सीपेरम (एक प्रोटोज़ोन परजीवी) के कारण होने वाली सबसे गंभीर न्यूरोलॉजिकल जटिलता है। प्लाज्मोडियम संक्रमित मच्छर के काटने सेमानव शरीर में संचरित हो जाता है। इससे पीड़ित मरीजों को न्यूरोलॉजिकल (स्नायुतंत्र संबंधी), याददाश्त में कमी व व्यवहार संबंधी कठिनाइयां होती हैं। इसके अलावा सेरीब्रल मलेरिया बच्चों में स्नायुतंत्र की वजह से हुई विकलांगता व मिर्गी आने का एक मुख्य कारण है। हालांकि, इसमें अभी तक यह पता नहीं चल पाया है कि कैसे रक्त वाहिकाओं का परजीवी मस्तिष्क के लिए घातक बन जाता है। फाल्सीपेरम मलेरिया उष्णकटिबंधीय देशों में न्यूरो-विकलांगता और मृत्यु का एक प्रमुख कारण है। दुनियाभर के कई बच्चे इससे प्रभावित हैं।

 

सेरेब्रल मलेरिया में संक्रमित व्यक्ति के दिमाग से तरल का रिसाव होता और वह कोमा में चला जाता है। इससे हर साल 575,000 से अधिक लोग संक्रमित होते हैं। जिसमें से 20 प्रतिशत लोगों की मौत हो जाती है। और बचे हुए 80 प्रतिशत में लंबे समय तक न्यूरोडेवलपमेंटल लक्षण विकसित होते हैं। जिनमें दौरे और मानसिक विकार शामिल हैं। यह छोटे बच्चों को ज्यादा प्रभावित करता है।

 

सेरेब्रल मलेरिया के लक्षण-

सेरेब्रल मलेरिया के केवल कुछ लक्षण बच्चों और वयस्कों दोनों में दिखाई देते हैं, जैसे-

 
  • बुखार।
  • खराब चेतना।
  • आवेग (Impulse) और तंत्रिका संबंधी असामान्यताएं।
  • कोमा (जो तीन दिनों तक चल सकता है)
  • लगातार ऑर्थोस्टैटिक हाइपोटेंशन ठंड।
  • सिरदर्द।
  • मांसपेशियों में दर्द।
  • कम रक्त दबाव।
  • हल्का पीलिया।
  • रक्ताल्पता (Anemia)।
  • यकृत और प्लीहा का विस्तार।
  • खराबकिडनी।
  • मूत्र में खून।
  • इंट्राक्रैनियल दबाव में वृद्धि।
  • भ्रम और दौरे।
  • श्वसन दर में वृद्धि।

आमतौर पर इसके लक्षण तीन चरणों में होते हैं:

ठंडा चरण:

यह 1-2 घंटे तक चल सकता है।

 

गर्म चरण:

यह सिरदर्द, उल्टी और युवा बच्चों में दौरे एवंउच्च बुखार यानी 107 डिग्री फारेनहाइट तक की विशेषता है। यह 3-4 घंटे तक चल सकता है।

 

पसीना चरण:

इसमें पसीना आता है और थकान होतीहै। यह चरण 2-4 घंटे तक चल सकता है।

 

सेरेब्रल मलेरिया के कारण-

मलेरिया एक प्रकार के परजीवी के कारण होता है। जिसे प्लाज़मोडियम कहते हैं। प्लाज़मोडिया परजीवी के कई अलग-अलग प्रकार हैं।लेकिन इनमें से केवल पांचपरजीवीमनुष्यों में मलेरिया का कारण बनते हैं। प्लाज़मोडियम परजीवी मुख्य रूप से मादा एनोफ़ेलीज़ मच्छरों से फैलते हैं।जो मुख्य रूप से शाम और रात में काटते हैं। जब एक संक्रमित मच्छर मनुष्य को काटता है, तो वह परजीवी को रक्तप्रवाह में फैला देता है। और इसके दिमाग तक पहुंचते ही व्यक्ति सेलेब्रल मलेरिया का शिकार हो जाता है।

 

सेरेब्रल मलेरिया से बचाव के उपाय-

  • सोते समय मच्छरदानी का प्रयोग करें।
  • बंद कमरे में क्वॉइल का प्रयोग न करें।
  • घर में पानी को जमा न होने दें।
  • अगर आसपास कहीं पानी जमा है, तो उसे बिखेर दे या उसमें ऑयल डाल दें।जिससे पानी में मच्छर नहीं पनपेंगे।
  • हल्का सा भी बुखार आने पर डॉक्टर से परामर्श लें।

सेरेब्रल मलेरिया का इलाज-

सेरीब्रल मलेरिया के लिए बहुत सी दवाइयां बाजार में उपलब्ध हैं। लेकिन डॉक्टर कीसलाह केबिना कोई भी दवाई न लें। क्योंकि बिना डॉक्टर की सलाह से दवाई लेने से सेहत को गंभीर नुक्सान हो सकता है।

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मधुमेह के लक्षण, कारण और घरेलू उपाय

Posted 24 May, 2022

मधुमेह के लक्षण, कारण और घरेलू उपाय

मधुमेह के लक्षण – दुनिया भर में मधुमेह (Diabetes) के मरीजों की संख्या दिन-पे-दिन बढ़ती जा रही है। इसलिए समय रहते मधुमेह का इलाज कराना बेहद आवश्यक है। क्योंकि मधुमेह समय बीतने के साथ गंभीर रूप ले लेता है, जिसका इलाज बाद में काफी मुश्किल हो जाता है। मधुमेह के रोगियों को किडनी और लीवर की बीमारी एवं आंखों और पैरों में दिक्कत होना आम है। पहले यह बीमारी लोगों को चालीस की उम्र के बाद ही होती थी। लेकिन आज यह बीमारी बच्चों में भी बढ़े पैमाने पर देखने को मिलती है। आम बोलचाल की भाषा में मधुमेह को शुगर की बीमारी भी कहते हैं।

 
मधुमेह क्या है?

डायबिटीज को ही हिंदी भाषा में मधुमेह कहा जाता है। शरीर के अग्न्याशय (pancreas) में इंसुलिन कम होने पर खून में ग्लूकोज का स्तर बढ़ जाता है, इसी स्थिति को मधुमेह कहते हैं। इंसुलिन एक हार्मोन है, जो अग्न्याशय द्वारा बनता है। इस हार्मोन का काम शरीर के अंदर भोजन को एनर्जी में बदलने का होता है। यह वही हार्मोन होता है, जो हमारे शरीर में शर्करा (शुगर) की मात्रा को कंट्रोल करता है। डायबिटीज होने पर शरीर को भोजन से एनर्जी बनाने में कठिनाई होती है। इस स्थिति में ग्लूकोज का बढ़ा हुआ स्तर शरीर के विभिन्न अंगों को नुक्सान पहुंचाना शुरू कर देता है।

 
क्या होते हैं मधुमेह के कारण?

निम्नलिखित बिंदु मधुमेह (Diabetes) के मुख्य कारण माने जाते हैं

अनुवांशिक मधुमेह–

मधुमेह के लक्षण – यदि परिवार में माता-पिता या किसी अन्य सदस्य को मधुमेह रोग हो तो ऐसे में परिवार के अन्य सदस्यों को और आने वाली पीढ़ी को भी मधुमेह होने की संभावना बढ़ जाती है। यह मधुमेह का अनुवांशिक (Heredity) कारण है।

 
रक्तचाप या दिल संबंधी बीमारी से ग्रस्त होना–

रक्तचाप (Blood Pressure) और दिल संबंधित बीमारी से ग्रस्त लोगों को मधुमेह (Diabetes) होने का खतरा अन्य लोगों से ज्यादा होता है।

 
शारीरिक श्रम न करना–

ऐसे लोगों में मधुमेह (Diabetes) होने का खतरा काफी बढ़ जाता है, जो व्यायाम, खेल-कूद या अन्य किसी प्रकार का कोई शारीरिक श्रम नहीं करते।

 
मोटापा–

अधिक जंकफूड खाना या समय पर भोजन न करने से मोटापा बढ़ता है। वजन बढ़ने के कारण उच्च रक्तचाप की समस्या हो जाती है और रक्त में कॉलेस्ट्रोल का स्तर भी बढ़ जाता है। जिस कारण डायबिटीज होने का खतरा बना रहता है।

 
गलत खान पान– 

वर्तमान में बच्चों में होने वाली मधुमेह (Diabetes) का मुख्य कारण असामान्य रहन-सहन और गलत खान-पान है। क्योंकि यह बच्चे शारीरिक रुप से अक्रिय (Inactive) रहकर देर तक टी.वी. देखते हैं और मोबाइल एवं कंप्यूटर पर गेम्स खेलने में समय व्यतीत करते हैं। जिस कारण इन्हें मधुमेह (Diabetes) होने का खतरा बना रहता है।

 
कैसे होते हैं मधुमेह के लक्षण?

डायबिटीज की पहचान करने का मुख्य तरीका इसके लक्षणों पर ध्यान देना है, जोकि निम्नलिखित हैं-

 
अधिक प्यास लगना–

मधुमेह का प्रमुख लक्षण ज्यादा प्यास लगना है। आमतौर पर हम प्यास लगने पर पानी पी लेते हैं और हमारी प्यास मिट जाती है। पर मधुमेह में ऐसा नहीं होता। अत: डायबिटीज से पीड़ित व्यक्ति को सामान्य से अधिक बार प्यास लगती है।

 
बार–बार पेशाब आना–

मधुमेह के लक्षण – मधुमेह से पीड़ित व्यक्ति में इंसुलिन कम हो जाता है और रक्त में शुगर की मात्रा अधिक हो जाती है। जिससे कोशिकाओं तथा रक्त में शुगर जमा होने लगती है, जो बाद में मूत्र के जरिए बाहर निकलती है। इसलिए डायबिटीज के मरीज को बार-बार पेशाब आता है।

 
चोट या जख्म का देरी से भरना–

डायबिटीज से पीड़ित व्यक्ति की प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यूनिटी) ठीक से कार्य नहीं करती। इस कारण रोगी की चोट या जख्म आसानी से नहीं भरते और ठीक होने में अधिक समय लगता है।

 
अचानक वजन का कम होना–

यदि किसी व्यक्ति का वजन काफी तेज़ी से कम हो रहा है तो उसे इस समस्या को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह डायबिटीज का लक्षण हो सकता है।

 
थकान महसूस होना–

किसी भी कार्य में जल्दी थक जाना और अधिकतर कमजोरी महसूस करना भी मधुमेह का एक कारण है। मधुमेह (Diabetes) से ग्रस्त व्यक्ति सामान्य व्यक्ति से जल्दी थक जाता है।

 
बार–बार फोड़े–फुंसियां निकलना–

शरीर पर बार-बार फोड़े-फुंसियों का निकलना भी मधुमेह का लक्षण होता है। ऐसा होते ही तुरंत मधुमेह की जांच कराएं। 

 
मधुमेह कितने प्रकार का होता है?

मधुमेह दो प्रकार का होता है।

 
टाइप-1 मधुमेह (Type 1 Diabetes)-

टाइप-1 अनुवांशिक तौर पर होती है। यानी जब परिवार में मम्मी-पापा, दादा-दादी या अन्य किसी को मधुमेह की बीमारी रही हो तो ऐसे में परिवार के अन्य लोगों को डायबिटीज होने की आशंका बढ़ जाती है। टाइप-1 में रोगी का अग्न्याशय (Pancreas) पूर्ण रूप से इन्सुलिन बनाने में असमर्थ होता है। इस अवस्था में पीड़ित को बाहर से इन्सुलिन देकर नियंत्रित किया जाता है। यह मधुमेह बच्चों को एवं 18-20 साल तक के युवाओं को अधिक प्रभावित करता है।

 
टाइप-2  मधुमेह (Type 2 Diabetes)-

कुछ लोगों में गलत लाइफस्टाइल और खान-पान के कारण यह बीमारी घर कर जाती है। इस स्थिति को टाइप-2 डायबिटीज कहते हैं। इस प्रकार में रोगी का शरीर इन्सुलिन (Insulin) बनाता तो है लेकिन कम मात्रा में और कई बार वह इन्सुलिन अच्छे से काम नहीं कर पाता। टाइप-1 डायबिटीज को उपचार और उचित खानपान से नियंत्रित किया जा सकता है। यह मधुमेह वयस्कों (Adults) को अधिक प्रभावित (Effecive) करता है।

 
डायबिटीज की जांच के लिए कौन सा टेस्ट कराएं?

निम्नलिखित विभिन्न जांच के द्वारा व्यक्ति में डायबिटीज की पहचान की जाती है।

 
फास्टिंग प्लाजमा ग्लूकोज टेस्ट–  

डायबिटीज (Diabetes) की पहचान करने के लिए फास्टिंग प्लाजमा ग्लूकोज टेस्ट (fasting plasma glucose test) किया जाता है। इस टेस्ट में व्यक्ति के खाली पेट ब्लड शुगर की जांच की जाती है। ताकि उसके शरीर में शुगर लेवल का पता लगाया जा सके।

 
पोस्टप्रेंडियल ब्लड शुगर टेस्ट–

फास्टिंग प्लाजमा ग्लूकोज टेस्ट के ठीक उल्टा इस टेस्ट को नाश्ते के बाद किया जाता है। जिससे ब्लड शुगर लेवल का पता लगाया जाता है।

 
ओरल ग्लूकोज टॉलरेंस टेस्ट–

डायबिटीज टाइप 2 की पहचान करने का सबसे साधारण तरीका यह oral glucose tolerance test टेस्ट है। इसके जरिए मानव-शरीर में ग्लूकोज डाला जाता है। फिर खून के सैंपल द्वारा इस बात का पता लगाया जाता है कि ग्लूकोज कितनी तेज़ी से खून से अलग हो रहा है।

 
एचबीए 1 सी टेस्ट–

मधुमेह के लक्षण – कई बार मधुमेह की पहचान हीमोग्लोबिन की जांच करके भी की जाती है। हीमोग्लोबिन की जांच के लिए एचबीए 1 सी (HBA1C) टेस्ट सबसे कारगर तरीका है। अगर इस टेस्ट में किसी व्यक्ति का हीमोग्लोबिन 8% आता है, तो यह डायबिटीज की पुष्टि करता है।

 
फ्रुक्टोज़ामाइन टेस्ट–
 

डायबिटीज की पहचान करने के लिए फ्रुक्टोज़ामाइन टेस्ट (Fructosamine test) भी होता है, जिसमें व्यक्ति के रक्त में फ्रुक्टोज़ामाइन की कुल मात्रा की जांच करके डायबिटीज का पता लगाया जाता है।

 

क्या हैं मधुमेह को कंट्रोल करने के घरेलू उपाय?
मधुमेह में तुलसी है फायदेमंद–

तुलसी में मौजूद एन्टीऑक्सिडेंट और जरुरी तत्व शरीर में इन्सुलिन जमा करने वाली और छोड़ने वाली कोशिकाओं को ठीक से काम करने में मदद करते है। इसलिए मधुमेह के रोगी को रोज दो से तीन तुलसी के पत्ते खाली पेट खाने चाहिए। इसके अतिरिक्त वेदोबी तुलसी ड्रॉप्स का भी निर्देशानुसार सेवन कर सकते हैं।

 
मधुमेह में अमलतास है लाभकारी–

अमलतास की कुछ पत्तियां धोकर उनका रस निकाल लें। इस रस को प्रतिदिन सुबह खाली पेट पीने से शुगर (Diabetes) के इलाज में फायदा मिलता है।

 
मधुमेह में कारगर है सौंफ का सेवन–

नियमित तौर पर डायबिटीज के रोगी भोजन के बाद सौंफ खाएं। सौंफ खाने से भोजन जल्दी पचता है और मधुमेह नियंत्रित रहता है।

 
मधुमेह की अच्छी दवा है करेला–

करेले का जूस रक्त में शुगर की मात्रा को कम करता है। इसलिए रक्त शर्करा (Blood sugar) को नियंत्रित करने के लिए करेले का जूस नियमित रुप से पीना चाहिए।

 
लाभकारी है मधुमेह में शलजम का सेवन–

मधुमेह में शलजम का सेवन काफी फायदेमंद होता है। इसलिए डायबिटीज होने पर शलगम को सलाद के रुप में या सब्जी बनाकर आवश्य खाएं।

 
लाभदायक है मधुमेह में मेथी का सेवन–

रात को सोने से पहले मेथी के दानों को एक गिलास पानी में डालकर रख दें। सुबह उठकर खाली पेट इस पानी को पिएं और बचे हुए मेथी के दानों को चबा लें। नियमित रुप से इसका सेवन करने से डायबिटीज नियंत्रित में रहता है।

 
मधुमेह में फायदेमंद है जामुन सेवन–

जामुन में काला नमक लगाकर खाने से रक्त में शर्करा (sugar) की मात्रा होती है।

 
डायबा फ्री लोशन का इस्तेमाल करना–

आरोग्यमशक्ति डायबा फ्री (DIABA FREE) डायबिटीज के रोगियों में शुगर की मात्रा को नियंत्रित करने के लिए वेदोबी द्वारा तैयार किया गया एक चमत्कारिक आयुर्वेदिक प्रोडक्ट है। इसमें चिरायता, जामुन, इन्द्रायण, बेर, कलौंजी, गुड़मार, नीम्बोली आदि प्राकृतिक औषधियां शामिल हैं। डायबा फ्री लोशन को सिर्फ बाहरी प्रयोग के लिए तैयार किया गया है। इसकी पांच से छ: बूंदों से दिन में दो बार हथेली और पैरों के तलवों में मालिश करने से डायबिटीज ठीक होती है। डायबा फ्री ब्लड में मौजूद शुगर की मात्रा को कम करके दोबारा से होने वाली डायबिटीज की संभावना को कम करता है।

 
मधुमेह का आधुनिक इलाज:
सर्जरी कराना–

जब डायबिटीज से पीड़ित व्यक्ति को किसी भी तरीके से आराम नहीं  मिलता है, तो उसके लिए बेरियाट्रिक सर्जरी ही एकमात्र विकल्प बचता है। बेरियाट्रिक सर्जरी के द्वारा मानव-शरीर में अतिरिक्त वसा (Extra Fat) को मेडिकल तरीके से निकाला जाता है।

 
दवाई लेना–

कई मामलों में डॉक्टर डायबिटीज का इलाज करने के लिए रोगी को Glizid-M, Glizid Star नामक कुछ दवाईयां देते हैं। इन दवाइयों को नियमित रूप से लेना मधुमेह को नियंत्रित रखने में सहायता करता है। (ध्यान रहें यह दवाईयां सिर्फ डॉक्टर के परामर्श से ही लें) 

 
इंसुलिन के इंजेक्शन लगाना–

कोई और विकल्प न बचने पर कई बार टाइप-1 मधुमेह के इलाज में डॉक्टर इंसुलिन के इंजेक्शन भी देते हैं।

 
हेल्थी डाइट अपनाना–

मधुमेह का इलाज करने का सबसे सरल तरीका अपने खान-पान पर काबू रखना है। हेल्थी डाइट डायबिटीज का सर्वोत्तम ईलाज है। इसके लिए अपनी डाइट में प्रोटीन, कैल्शियम इत्यादि तत्वों को शामिल करना चाहिए।

 
नियमित एक्सराइज़ करना–

डायबिटीज का एक कारण शारीरिक श्रम न करना है। अत: इसका इलाज करने में एक्सराइज़ करना बेहतर उपाय साबित हो सकता है।

 
वजन को कंट्रोल में रखना–

मधुमेह का इलाज करने में वजन को कंट्रोल करना कारगर साबित होता है। इससे पीड़ित व्यक्ति अपने शरीर में बी.एम.आई (बॉडी मास इंडेक्स) को सामान्य स्तर पर लाकर मधुमेह से राहत पा सकता है।

 
कब जाएं डॉक्टर के पास?

निम्नलिखित मधुमेह के लक्षण महसूस होने पर तुरंत डॉक्टर के पास जाएं।

  • व्यक्ति में अचानक वजन घटने पर।
  • बार-बार प्यास लगने और पेशाब आने पर।
  • हर समय कमजोरी और थकान महसूस होने पर।
  • शरीर पर बार-बार फोड़े-फुंसियों निकलने पर।
  • शरीर पर लगी चोट का आसानी से ठीक न होने पर।
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Why is Botulism a rare yet dangerous disease?

Posted 08 December, 2021

Why is Botulism a rare yet dangerous disease?

Botulism or "botulism poisoning" is a very serious disease that is a rare disease spreading through contaminated soil, open wounds and food items. If this disease is not treated in time, then it can lead to epilepsy and respiratory diseases in the person that can be fatal in many cases.

 

Types of Botulism

There are three main types of botulism disease which are as follows-

 

Foodborne botulism (botulism spread through food items)

There is a lack of oxygen in the food kept in the box for a long time. As a result, the bacteria in that box release some poisonous chemicals in the food, which prove to be injurious to health. This is called foodborne botulism.

 

Symptoms of Food borne botulism

  • Trouble swallowing or speaking.
  • Feeling of dryness in the mouth.
  • Difficulty in breathing.
  • Abdominal pain.
  • Nausea and vomiting.
  • Loss of control of facial muscles.
  • Having blurred or double vision.
  • Falling of the eyelids.
  • Epilepsy etc.

Causes of food borne botulism

The main cause of foodborne botulism is canned food and other substances in which there is a lack of oxygen. These include foods like green beans, corn and beet etc. Apart from this, this disease can also be caused by chilli and garlic oil. In this way, when a person eats food affected by chemicals, he creates a blockage in his digestive system which causes epilepsy and other defects.

 

Foodborne botulism prevention

  • Cook food thoroughly at 250 F(121C) for 30 minutes before packaging.
  • If the food that is put in the box starts to smell or rot, then do not consume that food.
  • Keep the garlic containing food in the refrigerator.

Infant botulism (botulism in children)

This is the most common type of botulism. It begins due to the growth of Clostridium botulinum (the bacterium that causes botulism) in the baby's intestinal tract. When the baby is 2 to 8 months old, the chances of spread are slightly higher.

 

Symptoms of Infant botulism

  • Constipation (which is usually the first symptom).
  • Difficulty drinking milk.
  • To be irritable.
  • Excessive sputum from the mouth.
  • Feeling too tired.
  • Loss of control over your movements due to muscle weakness.
  • Difficulty controlling the head.
  • Crying in a low voice.
  • Falling of the eyelids.
  • Epilepsy etc.

Causes of Infant botulism

Infant botulism is caused by honey or soil contaminated with bacteria. In this way, after consuming the bacteria, this bacteria develops in the intestinal tract of children and emits harmful chemicals.

 

Infant botulism prevention

To protect children from infant botulism, do not give them honey.

 

Wound botulism (botulism spread through wounds)

When bacteria get into an open wound, the risk of serious infection increases. It can also spread toxic chemicals. This is called wound botulism.

 

Symptoms of Wound botulism

  • Difficulty in breathing.
  • Difficulty swallowing and speaking.
  • Having blurred or double vision.
  • Loss of muscle control on both sides of the face.
  • Falling of the eyelids.
  • Epilepsy etc.

Causes of Wound botulism

Wound botulism is more common in people who take drugs such as heroin (a drug that is more likely to contain this bacteria) because when it comes in contact with a wound, these bacteria grow and spread and release chemicals.

 

Prevention methods of Wound botulism

To avoid wound botulism and other blood diseases, stay away from things like drugs.

 

Treatment of Botulism

Medicines and surgery-

During infant botulism, doctors recommend medicines to clean the digestive system due to which the person may vomit and his bowel movements increase. Apart from this, if the person has botulism in the wound, sometimes the affected tissue of the person may also need to be removed through surgery.

 

Antitoxin-

If a person is diagnosed with foodborne or wound botulism early, then he can take antitoxin through injection. Antitoxin attempts to reduce the risk of complications from botulism. It works by binding to harmful chemicals present in a person's blood to protect his nerves from damage. If the nerves are damaged, the antitoxin cannot repair them. In this case, it may take a few months for the person to recover.

 

Botulism immune globulin-

"Botulism immune globulin" is used to treat botulism in children.

 

Ventilator-

If a person faces difficulty breathing due to botulism, they may need a "mechanical ventilator" for a few weeks. It works by filling air into the person's lungs through ventilator tubes (which are connected to the mouth and nose).

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क्या है पित्ताशय की पथरी? जानें, इसके कारण, लक्षण और घरेलू उपचार

Posted 17 March, 2022

क्या है पित्ताशय की पथरी? जानें, इसके कारण, लक्षण और घरेलू उपचार

पाचन के लिए आवश्यक एंजाइम को सुरक्षित रखने के लिए पित्ताशय (galbladder) एक महत्वपूर्ण अंग है। पित्ताशय से जुड़ी सबसे प्रमुख समस्या यह है कि इसमें स्टोन बनने की आशंका बहुत अधिक होती है।जिन्हें गॉलस्टोन भी कहा जाता है। जब पित्ताशय में तरल पदार्थ की मात्रा सूखने लगती है तो उसमें मौजूद चीनी-नमक और अन्य माइक्रोन्यूट्रिएट तत्व एक साथ जमा होकर छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़ों जैसा रूप धारण कर लेते हैं।जिन्हें पित्ताशय की पथरी कहा जाता है। 80 प्रतिशत पथरी कोलेस्ट्रोल की बनी होती है। जो धीरे-धीरे कठोर हो जाती है तथा पित्ताशय के अंदर पत्थर का रूप ले लेती है। कोलेस्ट्रॉल स्टोन पीले-हरे रंग के होते हैं।

 
पित्त (पित्ताशय) की पथरी के प्रकार-

पित्ताशय की थैली में बनने वाली पथरी के निम्न प्रकार होते हैं।

कोलेस्ट्रोल गैलस्टोन (Cholesterol gallstones)-

यह पित्ताशय की पथरी का सबसे सामान्य प्रकार होता है। जिसे कोलेस्ट्रोल पित्ताशय की पथरी या कोलेस्ट्रोल गैलस्टोन कहा जाता है। यह अक्सर पीले रंग की होती है। यह पथरी मुख्य रूप से अघुलनशील (Undissolved) कोलेस्ट्रोल से बनती है।लेकिन कई बार इनमें अन्य पदार्थ भी शामिल होते हैं।

 
पिगमेंट गैलस्टोन (Pigment gallstones)-

यह पथरी गहरे भूरे या काले रंग की होती है।यह तब बनती है जब पित्तरस में अत्याधिक मात्रा में बिलीरूबीन शामिल होता है। बिलीरूबीन एक ऐसा द्रव होता है, जिसको लिवर द्वारा बनाया जाता है और पित्ताशय द्वारा उसको संग्रहित किया जाता है।

 
पित्ताशय में पथरी के लक्षण-

पित्ताशय में पथरी वाले ज्यादातर लोगों में किसी प्रकार के लक्षण दिखाई नहीं देते। वास्तव में, उनको यह तब तक पता नहीं चल पाता जब तक उनको इसके कोई लक्षण महसूस नहीं होते। इसे ‘साइलेंट गैलस्टोन’ (Silent gallstones) भी कहा जाता है। जैसे-जैसे पित्ताशय की पथरी की जटिलताएं बढ़ती जाती हैं, इसके लक्षण भी उभरने लगते हैं। पेट के ऊपरी हिस्से में दर्द होना, इसका सबसे सामान्य लक्षण होता है। क्योंकि इसका दर्द आमतौर पर प्रक्ररण (Episodes) के रूप में आता है।इसे अक्सर ‘अटैक’ के रूप में भी संदर्भित किया जाता है। दर्द के अटैक आने के बीच दिन, सप्ताह, महीने और यहां तक की साल का समय भी लग जाता है। इसका दर्द आमतौर पर फैटी भोजन करने के 30 मिनट बाद शुरू होता है। इसका दर्द आम तौर पर गंभीर, सुस्त और स्थिर हो सकता है। जोलगातार 5 घंटों तक रह सकता है। इसके दर्द की लहरें दाहिने कंधे व पीठ तक जा सकती हैं। यह असहनीय दर्द अक्सर रात के समय में ही होता है।

 
पित्ताशय में पथरी के कुछ अन्य सामान्य लक्षण-
  • मतली और उल्टी।
  • बुखार।
  • अपच।
  • उबकाई।
  • फुलाव (Bloating)।
  • फैटी खाद्य पदार्थों के प्रति शरीर की नकारात्मक प्रतिक्रिया।
  • पीलिया आदि।
पित्ताशय की पथरी के कारण-

पित्ताशय में पथरी का अभी तक कोई कारण सिद्ध नहीं हुआ है और यह किसी भी उम्र में हो सकता है। लेकिन कुछ फैक्टर हैं, जो गॉलस्टोन्स की संभावना को बढ़ा सकते हैं जैसे कि-

  • डायबिटीज (Diabetes)।
  • मोटापा (Obesity)।
  • गर्भधारण (Pregnancy)।
  • मोटापे की सर्जरी के बाद (Post bariatric surgery)।
  • कुछ दवाओं का सेवन।
  • लंबे समय से किसी बीमारी के ग्रस्त होने के कारण।
पित्ताशय की पथरी की जांच एवं इलाज-
अल्ट्रासाउंड टेस्ट-

इस टेस्ट में रोगी के शरीर के आंतरिक भागों की तस्वीरें बनाने के लिए ध्वनी तरंगों का इस्तेमाल किया जाता है। पित्ताशय में पथरी इस प्रकार के टेस्टों में अच्छे से दिखाई देती है।

 
एमआरआई स्कैन-

इस टेस्ट की मदद से भी शरीर के कुछ आंतरिक हिस्सों की तस्वीरें निकाली जाती हैं।इसमें अग्नाशय और पित्त नलिकाएं शामिल हैं।

 
एंडोस्कोपिक अल्ट्रासाउंड स्कैन-

इस टेस्ट को एंडोस्कोप नामक उपकरण के साथ किया जाता है। यह उपकरण पतला, लचीला, ट्यूब जैसा और टेलीस्कोपिक कैमरा के समान दिखने वाला होता है। इस उपकरण को मुंह के द्वारा पेट में डाला जाता है। इसके द्वारा बहुत छोटी पथरी को भी देखा जा सकता है।

 
सीटी स्कैन-

यह टेस्ट पित्त नलिकाओं, लिवर और अग्नाशय की पूर्ण तस्वीरें प्रदान करता है।

 
पित्ताशय की पथरी के घरेलू उपचार:
सेब का जूस-

पित्त की पथरी के घरेलू उपाय के तौर पर सेब के रस का सेवन किया जाता है। अगर नियमित रूप से इस जूस का सेवन किया जाए, तो मल के द्वारा पित्त की पथरी निकल जाती है।क्योंकि सेब के जूस का सेवन करने से पित्ताशय की पथरी नर्म होती है और मल के द्वारा आसानी से निकल जाती है। फिलहाल, अभी तक इस संबंध में कोई सटीक ठोस प्रमाण नहीं है।लेकिन इसका सेवन फायदेमंद माना जाता है।

 
नींबू का रस-

नींबू पानी के सेवन से पित्ताशय की पथरी का इलाज होता है। इस संबंध में हुए एक वैज्ञानिक शोध के अनुसार नींबू एक तरह का साइट्रस फल है।जिसके उपयोग से पित्त की थैली में मौजूद पथरी को बाहर करने की क्षमता को बढ़ावा मिलता है। इसके अलावा, विटामिन-सी पथरी की समस्या को पनपने से रोकता है। और नींबू को विटामिन-सी का अच्छा स्रोत माना जाता है। इसलिए पित्त की पथरी से निजात दिलाने में नींबू का रस मददगार साबित होता है।

 
डैंडेलियन-

पित्त की पथरी के लिए असरकारी घरेलू उपचार के रूप में डैंडेलायन की जड़ का उपयोग किया जाता है। एनसीबीआई (नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इंफार्मेशन) की वेबसाइट पर प्रकाशित एक शोध के अनुसार, डैंडेलियन में ताराक्सासिन (taraxacin) और ताराक्सासरिन (taraxacerin) पाए जाते हैं।जो पित्ताशय की समस्या के इलाज में सहायक होते हैं। वहीं, डैंडेलियन की जड़ न सिर्फ पाचन शक्ति में सुधार करती हैं, बल्कि इससे पित की पथरी का उपचार भी किया जाता है।

 
नाशपाती का जूस-

नाशपाती के जूस पीना पित्ताशय की पथरी में बेहदलाभदायक होता है। क्योंकि इसमेंएंटी-इंफ्लामेट्री गुण पाए जाते हैं।जो सूजन को दूर करने का कारगर उपाय है। जिससे यह पित्त की पथरी को पनपने से भी रोकती है।

 
पिपरमिंट-

पिपरमिंट को पित्त की पथरी का आयुर्वेदिक इलाज माना जाता है। पिपरमिंट में कई औषधीय गुण होते हैं।जो पित्त की पथरी को पतला या नर्म बनाते हैं। इससे पथरी बाहर निकल जाती है।

 
नारियल तेल-

नारियल तेल में कोलेस्ट्रॉल नहीं होता और इसमें ज़रूरी फैट होता है।जिस वजह से इसे पचाना आसान होता है। इसके सेवन से कोलेस्ट्रॉल नहीं जमता और पित्ताशय की पथरी की समस्या से बचाव होता है।

 
ग्रीन टी-

ग्रीन टी के सेवन से पित की पथरी का उपचार होता है। एनसीबीआई की वेबसाइट पर प्रकाशित एक मेडिकल रिसर्च के मुताबिक, ग्रीन टी में मौजूद कैटेचिन नामक कंपाउंड पित्ताशय के कैंसर या पित्ताशय की पथरी के विकास से जुड़े जोखिम को कम करने का काम करता है। इससे सेवन से पित्त की पथरी से कुछ हद तक राहत मिलती है।

 
कॉफी-

एक शोध के अनुसार दिन में एक कप कॉफी पीने से पित्ताशय की थैली की समस्याएं कम होती हैं। यह पित्त की पथरी को रोकने में मदद करता है। जो लोग एक दिन में करीब दो कप कॉफी का सेवन करते हैं, उनमें पित्ताशय की पथरी का खतरा 4 प्रतिशत तक कम हो जाता है।

 
इसबगोल-

पित्त की पथरी के लिए असरकारी घरेलू उपचार के तौर पर इसबगोल का उपयोग किया जाता है। इस संबंध में किए गए एक रिसर्चरिपोर्ट से पता चलता है कि इसबगोल में फाइबर की अच्छी मात्रा पाई जाती है।जो पित्त की पथरी को कम करने का काम करती है। इससे पीड़ित को कुछ हद तक राहत मिलती है।

 
पित्ताशय की पथरी से बचाव के उपाय-
  • जिनका वजन अधिक होता है, उन्हें पित्त की पथरी होने की आशंका ज्यादा होती है। ऐसे में वजन को कम करके पित्त की पथरी को होने से रोका जा सकता है।
  • फलों और हरी सब्जी के सेवन से इस समस्या से बचाता है।
  • पित्त की पथरी को उत्पन्न होने से रोकने के लिए नियमित रूप से योग और व्यायाम करना चाहिए।
  • सही समय पर खाना और सोना भी इस समस्या को दूर रखता है।
  • ज्यादा तले-भूने खाद्य पदार्थ या बाहरी खाद्य पदार्थों के सेवन से बचें।
  • ज्यादा फैट या कोलेस्ट्रॉल वाले खाद्य पदार्थों का सेवन न करें।
  • अंडे या मांसाहारी खाने का सेवन कम करें।
  • एसिडिक खाद्य पदार्थ जैसे टमाटर औरसंतरे का उपयोग कम करें।
  • ज्यादा मसाले वाले खाद्य पदार्थों के सेवन से बचें।
  • सब्जियां जैसे-फूलगोभी व शलजम से दूर रहें।
  • सोडा या शराब जैसे पेय पदार्थों का सेवन न करें।
कब जाएं डॉक्टर के पास?
  • पेट में तेज दर्द होने पर।
  • त्वचा में पीलापन और आंखें सफेद होने पर।
  • तेज बुखार और साथ में ठंड लगने पर।
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जानें, पेचिश के कारण, लक्षण और घरेलू उपचार

Posted 24 May, 2022

जानें, पेचिश के कारण, लक्षण और घरेलू उपचार

पेचिश एक प्रकार की पेट संबंधी बीमारी हैं। जिसका अहम कारण गंदगी होता है। जब कोई व्यक्ति हाथों की अच्छे से सफाई किए कुछ खाता या पीता है तो इस दौरान जीवाणु हाथों के माध्यम से पेट की आंतो तक पहुंच जाते हैं। जिससे पेचिश की समस्या उत्पन्न हो जाती है। इसलिए मनुष्य को स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना चाहिए। पेचिश होने पर मरीज को पतले दस्त यानी लूज मोशन शुरू हो जाते हैं। कभी-कभी इसमें दस्त के साथ रक्त या बलगम की कुछ भी बूंदे दिखाई देने लगती हैं। जिसकी वजह से शारीरिक कमजोरी होने लगती है। यह समस्या छोटे बच्चों से लेकर हर उम्र के लोगों में देखने को मिलती है। इसलिए समय रहते इसका इलाज न कराने पर यह गंभीर समस्या साबित हो सकती है।

 

दस्त के गंभीर रूप को पेचिश कहा जाता है। जो एक तरह का आंत संबंधित विकार है। इसमे व्यक्ति का मल पानी की तरह निकलता है। इसके अलावा मल के साथ खून या बलगम भी आता है। सामान्यतः यह दस्त एक हफ्ते तक रहते हैं। कुछ मामलो में मरीज जल्दी भी ठीक हो जाते हैं। लेकिन कुछ मामलो में मरीज जल्दी ठीक नहीं हो पाते। पेचिश मुख्य रूप से जीवाणु के संक्रमण के कारण होता है। यह बैक्टीरिया वायरस अथवा पेरासाइट्स के कारण भी हो सकता है। इसके अलावा पेचिश सूक्ष्म जीव, कुछ दवाओं और अन्य रोगों के संक्रमण से भी होता है। पेचिश को अंग्रेजी में डीसेंट्री (Dysentery) के नाम से जाना जाता है। 

 

पेचिश के प्रकार एवं कारण-

आमतौर पर पेचिश दो प्रकार के होते हैं। जो निम्नलिखित हैं;

 

बैसीलरी पेचिश-

पेचिश का यह प्रकार शिगेला (Shigella) नामक बैक्टीरिया की वजह से होता है। आमतौर पर यह बैक्टीरिया दूषित भोजन और पानी में पाए जाते हैं। जिसके सेवन से शिगेला नामक बैक्टीरिया पेट में प्रवेश कर जाते हैं। जिससे पेचिश, दस्त एवं अन्य तरह की पेट संबंधी समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं।

 

अमीबिक पेचिश-

पेचिश का यह प्रकार एटामोइबा हिस्टोलिटिका (Entamoeba histolytica) नामक पैरासाइट (परजीवी) के कारण होता है। यह अधिकतर गंदगी अर्थात स्वच्छता की कमी वाले स्थानों में होता है। खासतौर पर यह परजीवी आंतो को प्रभावित करता है और समूह के साथ संक्रमण करता हैं। इसके अलावा यह परजीवी सिस्ट (Cyst) का निर्माण करते हैं। ज्यादातर यह परजीवी दूषित जगहों पर रहते है। साथ ही यह शरीर के बाहर भी जीवित रह सकते हैं। इसलिए शौचालय से आने के तुरंत बाद अपने हाथों की सफाई करनी चाहिए। जिससे कोई भी संक्रमण शरीर में प्रवेश न कर पाए।  

 

पेचिश होने के अन्य कारण-

  • गलत खान-पान करने पर।
  • गंदे हाथों से भोजन करने पर।
  • खुले में रखें भोजन का सेवन करने पर।
  • मक्खियों द्वारा दूषित आहार का सेवन करने पर।
  • दूषित नदी या तालाब में स्नान करने पर।
  • संक्रमित लोगों से हाथ मिलाने या शारीरिक संपर्क में आने पर।
  • शौचालय के बाद हाथों को अच्छी तरह से न धोने पर।
  • दूषित पानी एवं अन्य पेय पदार्थों का सेवन करने पर।

पेचिश के लक्षण-

कई लोगों में पेचिश के लक्षण एक से अधिक देखें जा सकते हैं। जोकि निम्नलिखित हैं:

 
  • पतला दस्त होना।
  • बार-बार शौच जाना।
  • पेट में दर्द या ऐंठन होना।
  • मल में खून या बलगम आना।
  • उल्टी या जी मिचलाना।
  • पेट में मरोड़ या अन्य समस्या होना।
  • मल त्यागने में कठिनाई महसूस करना।
  • शारीरिक कमजोरी महसूस करना।
  • शरीर में पानी की कमी (डिहाइड्रेशन) होना।
  • बुखार आना।
  • ठंड लगना।

पेचिश होने पर बरतें यह सावधानियां-

 
  • साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें।
  • दूषित पानी पीने से बचें।
  • वॉशरूम यूज करने के बाद हैंडवॉश ज़रूर करें।
  • छोटे बच्चों के हाथों को अच्छे से धोने में मदद करें।
  • खाना खाने से पहले हाथों को साबुन से अच्छी तरह से धोएं।
  • गंदे कपड़ों, बेडशीट और तौलियों को अच्छे से गर्म पानी में धोएं।
  • खुले में बनने वाले भोजन का सेवन न करें।
  • दूषित एवं बासी भोजन का सेवन न करें।
  • अच्छी तरह से पका हुए भोजन का सेवन करें।
  • प्रतिदिन पर्याप्त मात्रा में तरल पदार्थ का सेवन करें।  
  • पानी को उबालकर पिएं।

पेचिश के घरेलू उपाय-

 
  • आयुर्वेद में पेचिश के इलाज में छाछ औषधि की तरह काम करती है।
  • पेचिश की शुरुआती दौर को खानपान के बदलाव से ही ठीक किया जा सकता है।
  • आयुर्वेद में पेचिश और कब्ज जैसी समस्या में चावल और मूंग दाल का पानी पीने की सलाह दी जाती है।
  • निर्जलीकरण से बचने के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी एवं तरल पदार्थों जैसे नारियल पानी, नींबू पानी और ओआरएस घोल आदि का सेवन करें।
  • पेचिश से राहत पाने के लिए हरीतकी कारगर साबित होता है। क्योंकि इसमें पाए जाने वाले एंटीबैक्टीरियल गुण पेचिश के घरेलू इलाज में मददगार साबित होते हैं। इसके लिए हरीतकी चूर्ण को गुनगुने पानी के साथ लें।
  • शहद को गुनगुने पानी के साथ लेने पर लूज मोशन एवं पेचिश की समस्या में आराम मिलता है। इसके अतिरिक्त शहद के साथ ओट्स, कॉर्न फ्लैक्स, हर्बल टी आदि का सेवन कर सकते हैं।
  • सेब का सिरका पेचिश या लूज मोशन को रोकने में सहायक होता है। क्योकि इसमें प्राकृतिक एंटी बैक्टीरियल गुण पाए जाते हैं।
  • बेल फल का सेवन पेचिश एवं पेट की समस्या के लिए बहुत फायदेमंद होता है। इसके अलावा बेल का शरबत पीना भी पेचिश में फायदेमंद होता है।
  • कच्चे केले का सेवन भी पेचिश को रोकने में मददगार होता हैं। क्योंकि केले में पेक्टिन नामक तत्व पाया जाता है। इसके अलावा ग्रीन केले को छीलकर मैश करें और छाछ के साथ अच्छी तरह से मिलाएं। अब इस मिश्रण का सेवन करें। ऐसा करने से यह पेचिश के इलाज में औषधि की तरह काम करता है।
  • पेचिश, कब्ज और पेट संबंधी कई समस्याओं के इलाज में पपीते का सेवन कारगर साबित होता है। दरअसल, पपीते में पपैन (Papain) और काइमोपपैन (Chymopapain) जैसे प्रोटियोलिटिक एंजाइम (Proteolytic Enzymes) पाए जाते हैं। यह एंजाइम एंटीवायरल, एंटीफंगल और एंटीबैक्टीरियल गुणों से समृद्ध होते हैं। इसका एंटीबैक्टीरियल गुण पेचिश को रोकने में अहम भूमिका निभाता है। इसके लिए पपीते को छिलकर कद्दूकस करके उबाल लें। अब इसके पानी को छानकर, थोड़ा ठंडा करके पिएं।
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एथलीट फुट क्या है? जानें, इसके कारण, लक्षण और घरेलू निदान

Posted 17 March, 2022

एथलीट फुट क्या है? जानें, इसके कारण, लक्षण और घरेलू निदान

एथलीट फुट पैरों में होने वाला संक्रमण है। जो पैरों की उंगलियों के बीच में होता है।चूंकि इसकी शुरुआत खिलाड़ियों से हुई थी।इसलिए इसे एथलीट फुट कहा जाता है। लेकिन वर्तमान समय में यह एक आम समस्या बन गई है। इसका मुख्य कारण पैरों के उंगलियोंमें अधिक पसीने होना, बरसात के मौसम में संक्रमणहोना,किसी संक्रमित वस्तु या संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आना होता है। कई बार यह समस्या उन लोगों में भी देखने को मिलती है, जो पूरे दिन जूते पहनकर आउटडोर ड्यूटी करते हैं।इसप्रकार से यह समस्या हर उम्र के लोगों में देखने को मिलती है। अत: समय पर इसका इलाज न कराने पर यह दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है। परिणामस्वरूपयह एक गंभीर समस्या साबित हो सकती है।

 

एथलीट फुट कैसे फैलता हैं?

चूंकि यह टीनिया नामक कवक से होता है। इसलिए मेडिकल भाषा में इसे टीनिया पेडिस (Tinea Pedis) भी कहा जाता है।यह कवक गरम एवं नम वातावरण में पनपते हैं। यहमुख्य रूप से जूते, स्विमिंग पूल और सार्वजनिक नमी वाले वातावरण में तेजी से बढ़ते हैं। इसी कारण यह आमतौर पर गर्मियों में और नम जलवायु वाली जगहों पर पाए जाते हैं। इसके अलावा जूते पहनने वाले व्यक्तियों के पैरों में भी एथलीट्स फंगल को देखा जा सकता है।जब फंगस (कवक) शरीर के इस क्षेत्र में आक्रमण करते हैं तो कुछ समय में ही वहां की त्वचा पर लाल धब्बे, दाद, घाव और खुजली जैसे लक्षण दिखाई देने लगते हैं।

 

एथलीट फुट होने के लक्षण-

एथलीट फुट की सबसे अहम पहचान है-त्वचा पर लाल धब्बे, दाद, रैशेज, त्वचा में पपड़ी का जमना, खाल का झड़ना या सफेद रंग के चूर्ण जैसे पदार्थ निकलने लगते हैं। इसके अलावा भी कुछ अन्य लक्षण होते हैं। आइए बात करते हैं इन्हीं अन्य लक्षणों के बारे में;

 
  • त्वचा का लाल होना या छिल जाना।
  • त्वचा पर खुजली और जलन का होना।
  • पैरों के तलवों पर अल्सर होना।
  • घाव का ठीक न होना और लगातार खून का रिसाव होना।
  • प्रभावित अंग से मवाद जैसे द्रव का बहना।

एथलीट फुट होने के कारण-

  • संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आने पर।
  • लगातार नमी वाले स्थानों में रहने पर।
  • पैरों को गिला छोड़ देने पर।
  • कई दिनों तक एक ही मोजे पहनने पर।
  • टाइट जूते पहनने पर।
  • स्विमिंग पुल में अधिक स्नान करने पर।
  • सार्वजानिक स्थानों पर नंगे पैर चलने पर।
  • गंदी तौलियों का उपयोग करने पर।

एथलीट फुट से बचने के उपाय-

  • किसी भी तरह के संक्रमण से बचने के लिए स्वयं को साफ-सुथरा रखें।
  • नमीयुक्त जगहों परनंगे पैर जाने से बचें।
  • कवक संक्रमण से संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आने से बचें।
  • एथलीट फुट से बचने के लिए पैरो की त्वचा को सूखा और स्वच्छ रखें।
  • संक्रमित व्यक्ति के तौलिए का उपयोग न करें।
  • हल्के और हवादार जूते पहनें।
  • सिंथेटिक चीजों से बने जूते का उपयोग न करें।
  • केवल सूती मोजे का प्रयोग करें।
  • प्रतिदिन मोजे को धोकर पहनें।
  • प्रतिदिन जूते को बदलकर पहनें।
  • सार्वजनिक जगहों पर अपने पैरों का बचाव करें।

एथलीट फुट के घरेलू निदान-

नीम की पत्तियां हैं फायदेमंद-

नीम की पत्तियों को पानी में उबालकर पैरों को धोने और गाय के दूध में नीम की पत्तियों को पीसकर संक्रमित हिस्से पर लगाने से एथलीट फुट ठीक हो जाते हैं। इसकेअलावा एथलीट फुट से पीड़ित व्यक्ति कोनीम कातेल प्रभावित जगहों पर लगाना बेहद फायदेमंद होता है।

 

चालमोगरा का तेल-

चालमोगरा का तेल भी चर्म रोग या फंगल इंफेक्शन से पीड़ित व्यक्तियों के लिए लाभकारी होता हैं। इसके लिए चालमोगरा का तेल और नीम के तेल को समान मात्रा में मिलाकर प्रभावित अंग पर लगाएं। ऐसा कुछ दिनों तककरने से एथलीट फुट और कई तरह केफंगल इंफेक्शन ठीक हो जाते हैं।

 

लहसुन हैं लाभप्रद-

लहसुन एंटी बायोटिक गुण से समृद्धल होता है। जोएथलीट फुट एवं फंगल इंफेक्शन को ठीक करने में मदद करता है। इसके लिए कुछ कच्चे लहसुन की कलियों को लेकर पेस्ट बनाकर प्रभावित स्थानों पर लगाएं।ऐसा करने सेघाव जल्दी भरते हैं। इसके अलावा कच्चे लहसुन के रस को भी पैरों के तलवों पर लगाने से आराम मिलता है।

 

हल्दी-

हल्दी एथलीट फुट से राहत दिलाने का एक प्रभावी प्राकृतिक उपाय है। क्योंकि यह एंटीसेप्टिक, एंटी इंफ्लेमेंटरी और एंटी फंगल गुणों से समृद्ध होती है। इसके लिए हल्दी पाउडर कोपानी मिलाकर पेस्ट बनाकर घावों पर लगाएं।

 

टी ट्री ऑयल-

टी ट्री ऑयल के लाभकारी गुण एथलीट फुट के लिए बेहद कारगर होते हैं। यह सुखी त्वचा, खुजली, लालिमा, छाले और चकत्ते जैसे एक्जिमा के लक्षणों को भी कम करते हैं। इस तेल में मौजूद एंटीबैक्टीरियल यौगिक त्वचा संबंधित संक्रमण को फैलने से रोकते हैं और एंटीऑक्सीडेंट खुजली और रूखी त्वचा को ठीक करने में कारगर साबित होते हैं।इसके लिए टी ट्री ऑयल की कुछ बूंदो को कैरियर ऑयल में मिलाकर पैरों के तलवों पर लगाएं।

 

मेहंदी पाउडर-

पैरों में संक्रमण के लिए मेहंदी एक तरह का प्राकृतिक उपचारक का काम करती है। क्योंकि यह एंटीसेप्टिक से समृद्ध होती है। इसके लिए मेहंदी पाउडर को गुलाब जल में अच्छी तरह से मिक्स करें। अब इस पेस्ट को प्रभावित जगहों पर लगाएं। ऐसा करने से एथलीट फुट में आराम मिलता है। 

 

नींबू-

एथलीट फुट में नींबू भी औषधि का काम करता है। क्योंकि इसमें एंटी ऑक्सीडेंट और एंटी बैक्टीरियल दोनों गुण पाए जाते हैं। जो त्वचा के स्वास्थ्य में सुधार करते हैं। इसके लिए नींबू का रस, सिरका और ग्लिसरीन मिलाकर पैरों के तलवों पर लगाएं।

 

बेकिंग सोडा-

एथलीट फुट होने पर गुनगुने पानी में बेकिंग सोडा या फिटकरी डाल कर प्रभावित हिस्से की सिकाई करें। ऐसा करने से एथलीट की समस्या से राहत मिलतीहै।

 

एप्पल साइडर विनेगर-

एथलीट फुट होने पर एप्पल साइडर विनेगर एक अन्य प्रभावशाली उपचार है। इसके लिए गुनगुने पानी में एक टेबल स्पून एप्पल साइडर विनेगर मिलाएं। अब इस पानी में पैरों को डूबा रहने दें। कुछ समय बाद पैरों को तौलिए से अच्छी तरह से साफ करें। अब पैरों को सूखने के लिए हवा लगने दें।

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Know the Methods, Benefits and Precautions for Foot Massage Therapy (Padabhyanga)

Posted 08 December, 2021

Know the Methods, Benefits and Precautions for Foot Massage Therapy (Padabhyanga)

Padabhyanga therapy is a miraculous method in which many diseases of the body are treated through a foot massage. Feet have a lot of importance in Ayurveda and these are considered an important part of the body because the endpoint of all the nerves in our body is in our feet. Massaging the feet means massaging the nerves which strengthen the nerves as well as makes other parts of the body healthy. Doing this daily provides many health benefits.

 

In Ayurveda, 'Padabhyanga' is called the mother of all alternative treatments because it has the power to cure dosha-imbalance. According to this, complete health benefits can be found only by a foot massage. Padabhyanga therapy cures roughness of the feet, dryness, laxity, tiredness, numbness, cracking of the feet, narrowing of the blood vessels, sciatica and many gout diseases. Along with this, the eyesight also gets sharper through foot massage therapy.

 

When to do Foot Massage?

It is beneficial to practice it every day. It can be done in the morning before bath or at any leisure time but the time before going to bed at night is considered the best time for padabhyanga because at this time the body is tired from the work of the whole day. Therefore, if padabhyanga is done before sleeping at night, then along with getting good sleep, the fatigue of the day is also removed.

 

Ayurvedic reference for Padabhyanga

Padabhyanga has a deep connection with Ayurveda. It is one of the oldest techniques of treatment. In Charak Samhita, Acharya Charak in Sutra sthana chapter no. 5 shlok 90 to 92 has very proficiently described the process and importance of padabhyanga. It states that the roots of all the veins are connected to the feet. As an example, if we crush bitter gourd and keep it in the soles of the shoes while walking, a bitter taste appears in the mouth. This happens because feet are the roots of the body, therefore applying anything on the feet helps in the treatment of several diseases and conditions even if the ingredient is applied externally.

 

Method of Foot Massage

For abstinence, first of all, lay a plastic sheet under the patient's feet and make him lie down straight. After this, choose the oil according to the nature of his body. Sesame oil is suitable for the patient of Vata nature, coconut, sunflower or sandalwood oil for the patient of Kapha nature and mustard oil for Pitta nature. Now heat the oil lightly and apply it on the feet and massage the feet, ankles, joints and soles by pressing them well with light hands. Massage can be done for at least 20 minutes. Do this for the first 10 minutes on your hands, then for 10 minutes, rub the soles with the bottom of the bowl. Apart from oil, ghee can also be used for padabhyanga.

 

Benefits of Padabhyanga

  • Padabhyanga fills the cracks of cracked heels and makes them smooth.
  • It is helpful in relieving fatigue.
  • This increases eyesight.
  • It removes the problem of numbness in the hands and feet.
  • This makes the skin glow.
  • It is helpful in protecting against mental illnesses.
  • Padabhyanga improves the problem of sleeplessness.
  • Diseases such as stress, anxiety, headache, hypertension can be avoided by the practice of padabhyanga.
  • Padabhyanga increases blood circulation.
  • Improves joint pain and muscle stiffness.
  • Padabhyanga is helpful in removing depression or mental/physical imbalance.
  • It is helpful in hearing ability and eyesight.
  • It gives relief to sciatica pain.

When should one not perform Padabhyanga?

Padaabhyanga should not be done in some special conditions related to health such as cold, fever, blood infection, indigestion, stomach disease or skin disorder.

 

Follow these precautions while doing Padabhyanga

  • Padabhyang should always be done only after 1-2 hours of eating.
  • Do this before taking a bath.
  • Do not perform padabhyanga if you feel excessively hungry or thirsty.
  • Take a bath only after 20 minutes of doing padabhyanga.
  • After padabhyanga, take a bath with lukewarm water only.

How does the Diaba Free Lotion work on this technique?

Diaba free Lotion formulated for the treatment of Diabetes works on the padabhyanga technique as it consists of ayurvedic ingredients that work on multiple levels. It activates the veins and regulates blood circulation through massage and the ayurvedic ingredients get to action by controlling the level of sugar in the blood.

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Causes, Symptoms and Home remedies of Pneumonia

Posted 08 December, 2021

Causes, Symptoms and Home remedies of Pneumonia

Pneumonia is a lung infection in which the air sacs (alveoli) of one or both lungs is filled with a fluid or pus. This causes a cough with mucus or pus, fever, chills, and shortness of breath. Pneumonia is mainly caused by infection with viruses or bacteria. It can also be caused by bacteria, viruses or parasites. Apart from this, pneumonia is also caused by infection with micro-organisms, certain drugs, and other diseases. Pneumonia is a serious disease that may take a serious form if the symptoms are not recognized and treated at the right time. It is more harmful to infants, young people, people over the age of 65, people with health problems or those with weakened immune systems. Most types of pneumonia are contagious. Both viral and bacterial pneumonia can be spread to other people by sneezing or coughing but fungal pneumonia does not spread like this.

World Pneumonia Day is celebrated all over the world on 12 November. The purpose of celebrating this day is to make people aware of the disease of pneumonia. According to a report in 2016 ahead of World Pneumonia Day (November 12), India has the highest number of infant and child deaths due to pneumonia in the world. Every year in India, about 1 lakh 90 thousand children under 5 years of age die due to pneumonia. Under the Universal Immunization Program, a new vaccine has been introduced in India this year to protect children from pneumonia which is called the pneumococcal conjugate vaccine (PCV: PCV).

 
Types of Pneumonia

There are five types of pneumonia-

Bacterial pneumonia-

This type of pneumonia is caused by different bacteria. The most common of these is Streptococcus pneumoniae. This usually happens When the body becomes weak in some way like a minor illness, nutritional deficiency, old age or body immunity problems etc. In this, the bacteria go into the lungs. Bacterial pneumonia can affect people of all ages.

 
Viral pneumonia-

This type of pneumonia is caused by a variety of viruses, including influenza (flu). If a person has viral pneumonia, they are more likely to get bacterial pneumonia.

 
Mycoplasma pneumonia-

This type of pneumonia has slightly different symptoms and is called atypical pneumonia. It is caused by a bacterium called Mycoplasma pneumoniae. It usually causes mild but widespread pneumonia which affects all age groups.

 
Aspiration pneumonia-

This type of pneumonia is caused by food, liquid, gas or dust. It is also known as Necrotizing Pneumonia, Anaerobic Pneumonia, Aspiration Pneumonitis and Aspiration of Vomitus. This type of pneumonia can sometimes be difficult to cure because people who get aspiration pneumonia are already sick.

 
Fungal pneumonia-

This type of pneumonia is caused by various endemic or opportunistic fungi. This leads to fungal infections, such as histoplasmosis, coccidioidomycosis, and blastomycosis. Cases of fungal pneumonia are difficult to diagnose.

 
Symptoms of Pneumonia

Flu-like symptoms are felt in pneumonia. These symptoms can develop slowly or rapidly. The main symptom of pneumonia is cough. Along with coughing, there are several other symptoms which are listed below-

  • The patient feels weak and tired.
  • Suffering from cough with mucus.
  • Fever with sweating and shivering.
  • The patient has difficulty breathing or starts breathing rapidly.
  • Chest pain.
  • Feeling restless.
  • Loss of appetite etc.
Symptoms of Pneumonia in young children
  • Small children start sweating and body chills along with fever.
  • Heavy coughing among children.
  • Loss of appetite.
Causes of Pneumonia
  • Viruses, bacteria, fungi or parasitic organisms or other organisms can cause pneumonia.
  • Pneumonia can be caused by a variety of bacteria. In most cases, the organism that causes pneumonia (such as bacteria or viruses) is not detected by the test, but it is usually caused by Streptococcus Pneumoniae.
  • Mycoplasma pneumoniae, caused by Mycoplasma pneumoniae, is sometimes mild and is also called "walking pneumonia".
  • Viruses such as influenza A (flu virus) and respiratory syncytial virus (RSV) can also cause pneumonia.
  • People with a weak immune system can also get pneumonia caused by other organisms such as Pneumocystis jirovecii. This fungus often causes pneumonia in people who have AIDS, that's why some doctors may recommend an HIV test. If they think that the cause of pneumonia is Pneumocystis jirovecii.
Prevention of Pneumonia
Get Vaccinated-

Vaccines are available to prevent some types of pneumonia and the flu. Vaccinations change over time, that is why consult a doctor even if you are vaccinated against pneumonia.

 
Vaccination of children-

Doctors recommend different pneumonia vaccines for children under the age of 2 and children between the ages of 2 and 5. Doctors also recommend flu shots for babies older than 6 months.

 
Take care of cleanliness-

Wash your hands regularly to protect yourself from respiratory infections (which sometimes lead to pneumonia).

 
Quit smoking-

Smoking causes a lot of damage to a person's lungs. Therefore, smoking also increases the risk of pneumonia.

 
Some other defences-
  • Keep your immune system healthy.
  • Get enough sleep.
  • Exercise regularly.
  • Eat a healthy diet.
Treatment of Pneumonia

Treatment of pneumonia depends on the type, severity, age and health of the person. Following are the treatment options for it-

 
Antibiotics-

These medicines are used to treat pneumonia caused by bacteria.

 
Medicines for cough-

This medicine can be used to reduce cough so that people can rest. Coughing helps loosen the fluid in the lungs.

 
Home remedies for Pneumonia
Steam-

Inhalation of steam reduces infection. This also improves the breathing capacity of the patient. Steam reduces cough and also relieves chest tightness.

 
Turmeric-

Turmeric is also helpful in relieving shortness of breath. It reduces phlegm. Therefore, consuming hot milk adding turmeric powder twice a day is considered beneficial in pneumonia.

 
Mustard oil-

Mix turmeric powder in lukewarm mustard oil. Massage your chest with this. This prevents pneumonia.

 
Peppermint-

Peppermint reduces irritation and mucus. Therefore, make tea using fresh mint leaves and drink it. This mint tea acts as a medicine for pneumonia.

 
Some other home remedies-
  • During pneumonia, drinking vegetable juices such as carrot juice, spinach juice, beet juice, cucumber juice and other vegetable juices is beneficial for health.
  • To cure cough, gargle with half a teaspoon of salt in a glass of water. With its help, the mucus and irritation present in the throat are reduced.
  • Try to maintain a normal diet because it is necessary to eat a balanced diet in order to recover.
  • Drink 6 to 8 glasses of water daily.
  • Eat green leafy vegetables and fruits daily.
  • Eat meat, fish, eggs and light food.
  • Eat well-cooked vegetables.
When to go to the doctor?
  • If the patient is more than 60 years of age.
  • When the patient's Systolic BP is more than 140 and Diastolic is less than 90 mmHg.
  • When the patient's breathing is fast or needs assistance in breathing.
  • See a doctor if the patient's temperature is below normal.
  • If the heart rate is below 50 or above 100.
 When to take children to the doctor if they have Pneumonia?

Pneumonia turns serious for children in some children. In such cases, children need treatment in the hospital. Therefore, in the following circumstances, take the children to the hospital immediately-

  • When the child is taking a fast or deep breath.
  • When the child has consumed less than the normal amount of fluids in the last 24 hours.
  • Children on breathlessness (a thick, whistling sound when breathing).
  • When the baby's lips and fingernails start turning blue.
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